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________________ मार्गणास्थान-अधिकार ६५ है। इसलिये इस जगह यह शङ्का होती है कि जब उक्त शेष ग्यारह गुणस्थानों में मरण का संभव है, तब विग्रह गति में पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन ही गुणस्थान क्यों माने जाते हैं? इसका समाधान यह है कि मरण के समय उक्त ग्यारह गुणस्थानों के पाये जाने का कथन है, सो व्यावहारिक मरण को लेकर (वर्तमान भाव का अन्तिम समय, जिसमें जीव मरणोन्मुख हो जाता है, उसको लेकर), निश्चय मरण को लेकर नहीं। परभव की आयु का प्राथमिक उदय, निश्चय मरण है। उस समय जीव विरति-रहित होता है। विरति का सम्बन्ध वर्तमान भव के अन्तिम समय तक ही है। इसलिये निश्चय मरण-काल में अर्थात् विग्रहगति में पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान को छोड़कर विरति वाले पाँचवें आदि आठ गुणस्थानों का संभव ही नहीं है।।२३॥ (३) मार्गणाओं में योग। (छह गाथाओं से) सच्चेयरमीसअस,-च्चमोसमणवइविउवियाहारा। उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे।। २४।। सत्येतरमिश्रासत्यमृषमनोवचोवैकुर्विकाहारकाणि। औहारिकं मिश्राणि कार्मणमिति योगाः कार्मणमनाहारे।। २४।। अर्थ-सत्य, असत्य, मिश्र (सत्यासत्य) और असत्यामृष, ये चार भेद मनोयोग के हैं। वचनयोग भी उक्त चार प्रकार का ही है। वैक्रिय, आहारक और औदारिक, ये तीन शुद्ध तथा ये ही तीन मिश्र और कार्मण, इस तरह सात भेद काययोग के हैं। सब मिलाकर पन्द्रह योग हुए। अनाहारक-अवस्था में कार्मण काययोग ही होता है।।२४।। मनोयोग के भेदों का स्वरूप भावार्थ-(१) जिस मनोयोगद्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप विचारा जाय; जैसे-जीव द्रव्यार्थिक नय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है, इत्यादि, वह 'सत्यमनोयोग' है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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