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________________ चौथा कर्मग्रन्थ अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि ही हैं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि में कोई जीव सास्वादन-भावसहित आकार जन्म ग्रहण नहीं करता। कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में छह गुणस्थान माने जाते हैं। इनमें से पहले चार गुणस्थान ऐसे हैं कि जिनकी प्राप्ति के समय और प्राप्ति के बाद भी उक्त तीन लेश्याएँ होती हैं। परन्तु पाँचवाँ और छठा, ये दो गुणस्थान ऐसे नहीं हैं। ये दो गुणस्थान सम्यक्त्वमूलक विरतिरूप हैं, इसलिये इनकी प्राप्ति तेजः आदि शुभ लेश्याओं के समय होती है; कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं के समय नहीं। तो भी प्राप्ति हो जाने के बाद परिणाम-शुद्धि कुछ घट जाने पर इन दो गुणस्थानों में अशुभ लेश्याएँ भी आ जाती हैं। कहीं-कहीं२ कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में पहले चार ही गुणस्थान कहे गये हैं, सो प्राप्ति-काल की अपेक्षा से अर्थात् उक्त तीन लेश्याओं के समय पहले चार गुणस्थानों के सिवाय अन्य कोई गुणस्थान प्राप्त नहीं किया जा सकता। तेजोलेश्या और पद्मलेश्णा में पहले सात गुणस्थान माने हुए हैं, सो प्रतिद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न, दोनों की अपेक्षा से अर्थात् सात गुणस्थानों को पाने के समय और पाने के बाद भी उक्त दो लेश्याएँ रहती हैं। __ अनाहारक मार्गणा में पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ और चौदहवाँ, ये पाँच गुणस्थान कहे हुए हैं। इनमें से पहले तीन गुणस्थान विग्रहगति-कालीन अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से, तेरहवाँ गुणस्थान केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में होनेवाली अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से। और चौदहवाँ गुणस्थान योग-निरोध-जन्य अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिये। कहीं-कहीं यह लिखा हुआ मिलता है कि तीसरे, बारहवें और तेरहवें, इन तीन गुणस्थानों में मरण नहीं होता, शेष ग्यारह गुणस्थानों में इसका संभव १. यही बात श्रीभद्रबाहु स्वामी ने कही है 'सम्मत्तसुयं सव्वा,-सु लहइ सुद्धासु तीस य चरित्तं। पुवपडिवन्नओ पुण, अन्नयरीए उ लेसाए।।८२२।।' -आवश्यक-नियुक्ति, पृ. ३३८/१। अर्थात् 'सम्यक्त्व की प्राप्ति लेश्याओं में होती है, चारित्र की प्राप्ति पिछली तीन शुद्ध लेश्याओं में ही होती है। परन्तु चारित्र प्राप्त होने के बाद छह में से कोई लेश्या आ सकती है।' २. इसके लिये देखिये, पञ्चसंग्रह, द्वार १, गा. ३० तथा बन्धस्वामित्व, गा. २४ और जीवकाण्ड गा. ५३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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