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________________ मार्गणास्थान-अधिकार तीन प्रकार का योग, आहारक? और शुक्ललेश्या, इन छह मार्गणाओं में तेरह गुणस्थान होते हैं; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान के समय न तो किसी प्रकार का योग रहता है, न किसी तरह का आहार ग्रहण किया जाता है और न लेश्या ही सम्भव है। योग में तेरह गुणस्थानों का कथन मनोयोग आदि सामान्य योगों की अपेक्षा से किया गया है। सत्य मनोयोग आदि विशेष योगों की अपेक्षा से गुणस्थान इस प्रकार हैं (क) सत्यमन, असत्यामृषामन, सत्यवचन, असत्यामृषावचन और औदारिक, इन पाँच योगों में तेरह गुणस्थान हैं। (ख) असत्यमन, मिश्रमन, असत्यवचन और मिश्रवचन, इन चार में पहले बारह गुणस्थान हैं। (ग) औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग में पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ, ये चार गुणस्थान हैं। (घ) वैक्रिय काययोग में पहले सात और वैक्रियमिश्रकाययोग में पहला, दूसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा ये पाँच गुणस्थान हैं। (च) आहारक काययोग में छठा और सातवाँ, ये दो और आहारक मिश्रकाययोग में केवल छठा गुणस्थान है।।२२॥ अस्सन्निसु पढमदुगं, पढमतिलेसासु छच्च दुसु सत्त। पढमंतिमदुगअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा।।२३।। असंज्ञिषु प्रथमद्विकं, प्रथमत्रिलेश्यासु षट् च द्वयोस्सप्त। प्रथमान्तिमद्विकायतान्यनाहारे मार्गणासु गुणाः।। २३।। अर्थ-असंज्ञिओं में पहले दो गुणस्थान पाये जाते हैं। कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में पहले छह गुणस्थान और तेजः और पद्म, इन दो लेश्याओं में पहले सात गुणस्थान हैं। अनाहारक मार्गणा में पहले दो, अन्तिम दो और अविरतसम्यग्दृष्टि, ये पाँच गुणस्थान हैं। इस प्रकार मार्गणाओं में गुणस्थान का वर्णन हुआ।।२३॥ भावार्थ-असंज्ञी में दो गुणस्थान कहे हुए हैं। पहला गुणस्थान सब प्रकार के असंज्ञियों को होता है और दूसरा कुछ असंज्ञिओं को। ऐसे असंज्ञी, करण१. देखिये, परिशिष्ट 'ढ'। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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