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________________ मार्गणास्थान - अधिकार ७१ औदारिक मिश्रकाययोग मनुष्य- तिर्यञ्च स्त्री को अपर्याप्त अवस्था में और कार्मणकाययोग पर्याप्त-मनुष्य - स्त्री को केवलिसमुद्धात अवस्था में होता है। अविरति, सम्यग्दृष्टि, सास्वादन, तीन अज्ञान, अभव्य और मिथ्यात्व, इन सात मार्गणाओं में चार मन के, चार वचन के, औदारिक और वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त अवस्था में होते हैं। कार्मण काययोग विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के प्रथम क्षण में होता है। औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्तअवस्था में होते हैं। उपशम सम्यक्त्व में चार मन के, चार वचन के, औदारिक और वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त अवस्था में पाये जाते हैं। कार्मण और वैक्रियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्त अवस्था में देवों की अपेक्षा से समझने चाहिये, क्योंकि जिनका यह मत है कि उपशमश्रेणि से गिरनेवाले जीव मरकर, अनुत्तरविमान में उपशम सम्यक्त्वसहित जन्म लेते हैं, उनके मत से अपर्याप्त देवों में उपशम सम्यक्त्व के समय उक्त दोनों योग पाये जाते हैं। उपशम सम्यक्त्व में औदारिक मिश्रयोग गिना है, सो सैद्धान्तिक मत के अनुसार, कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार नहीं; क्योंकि कार्मग्रन्थिक मत से पर्याप्त अवस्था में केवली के सिवाय अन्य किसी को वह योग नहीं होता । अपर्याप्त अवस्था में मनुष्य तथा तिर्यञ्च को होता है सही, पर उन्हें उस अवस्था में किसी तरह का उपशम सम्यक्त्व नहीं होता । सैद्धान्तिक मत से उपशम सम्यक्त्व में औदारिक मिश्रयोग घट सकता है; क्योंकि सैद्धान्तिक विद्वान् वैक्रियशरीर की रचना के समय वैक्रिय मिश्रयोग न मानकर औदारिक मिश्रयोग मानते हैं, इसलिये वह योग, ग्रन्थि - भेद - जन्य उपशम सम्यक्त्व वाले वैक्रियलब्धि-संपन्न मनुष्य में वैक्रियशरीर की रचना के समय पाया जा सकता है। - जो द्रव्य से पुरुष होकर भाव- स्त्रीवेद का अनुभव करता है, वह भी आहारक योग वाला होता है। इसी तरह आगे उपयोगाधिकार में जहाँ वेद में बारह उपयोग कहे हैं, वहाँ भी वेद का मतलब द्रव्य-वेद से ही है। क्योंकि क्षायिक उपयोग भाव-वेदरहित को ही होते हैं, इसलिये भाववेद में बारह उपयोग नहीं घट सकते। इससे उलटा, गुणस्थान-अधिकार में वेद का मतलब भाववेद से ही है; क्योंकि वेद में नौ गुणस्थान कहे हुए हैं, सो भाववेद में ही घट सकते हैं, द्रव्यवेद तो चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त रहता है। १. यह मत स्वयं ग्रन्थकार ने ही आगे की ४९वीं गाथा में इस अंश से निर्दिष्ट किया है'विव्वगाहारगे उरलमिस्सं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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