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चौथा कर्मग्रन्थ
देवगति और नरकगति में विरति न होने से दो आहारक योगों का सम्भव नहीं है तथा औदारिक शरीर न होने से दो औदारिक योगों का संभव नहीं है। इसलिये इन चार योगों के सिवाय शेष ग्यारह योग उक्त दो गतियों में कहे गये हैं; सो यथासम्भव विचार लेना चाहिये || २६ ॥
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कम्मुरलदुगं थावरि, ते सविउव्विदुग पंच इगि पवणे । छ असंनि चरमवइजुय, ते विउवदुगूण चउ विगले ।। २७ ।। कार्मणौदारिकद्विकं स्थावरे, ते सवैक्रियद्विकाः पञ्चैकस्मिन् पवने । षडसञ्जिनि चरमवचोयुतास्ते वैक्रियद्विकोनाश्चत्वारो विकले । । २७।।
अर्थ-स्थावर काय में, कार्मण तथा औदारिक- द्विक, ये तीन योग होते हैं। एकेन्द्रिय जाति और वायुकाय में उक्त तीन तथा वैक्रिय-द्विक, ये कुल पाँच योग होते हैं। असंज्ञी में उक्त पाँच और चरम वचनयोग (असत्यामृषावचन) कुल छह योग होते हैं। विकलेन्द्रिय में उक्त छह में से वैक्रिय-द्विक को घटाकर शेष चार (कार्मण, औदारिकमिश्र, औदारिक और असत्यामृषावचन) योग होते हैं ||२७||
भावार्थ-स्थावरकाय में तीन योग कहे गये हैं, सो वायुकाय के सिवाय अन्य चार प्रकार के स्थावरों में समझना चाहिये। क्योंकि वायुकाय में और भी दो योगों का संभव है। तीन योगों में से कार्मण काययोग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति - समय में, औदारिक मिश्रकाययोग, उत्पत्ति - समय को छोड़कर शेष अपर्याप्त काल में और औदारिक काययोग, पर्याप्त अवस्था में समझना चाहिये ।
एकेन्द्रिय जाति में, वायुकाय के जीव भी आ जाते हैं। इसलिये उसमें तीन योगों के अतिरिक्त, दो वैक्रिययोग मानकर पाँच योग कहे हैं।
वायुकाय में अन्य स्थानों की तरह कार्मण आदि तीन योग पाये जाते हैं, पर इनके सिवाय और भी दो योग (वैक्रिय और वैक्रियमिश्र) होते हैं। इसी से उसमें पाँच योग माने गये हैं। वायुकाय' में पर्याप्त बादर जीव, वैक्रियलब्धिसम्पन्न होते हैं, वे ही वैक्रिय-द्विक के अधिकारी हैं, सब नहीं । वैक्रियशरीर बनाते १. यही बात प्रज्ञापना - चूर्णि में कही हुई है—
'तिन्हं ताव रासीणं, वेडव्विअलब्द्धी चेव नत्थि । वादरपज्जताणं पि, संखेज्जइ भागस्य त्ति । । '
- पञ्चसंग्रह-द्वार १ की टीका में प्रमाणरूप से उद्घृत । अर्थात् – 'अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म और अपर्याप्त बादर, इन तीन प्रकार के वायुकायिकों में तो वैक्रियलब्धि है ही नहीं। पर्याप्त बादर वायुकाय में है, वह सबमें नहीं; सिर्फ उसके संख्यातवें भाग में ही है।'
परन्तु
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