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मार्गणास्थान - अधिकार
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समय, वैक्रिय मिश्रकाययोग और बना चुकने के बाद उसे धारण करते समय वैक्रिय काययोग होता है।
असंज्ञी में छह योग कहे गये हैं। इनमें से पाँच योग तो वायुकाय की अपेक्षा से; क्योंकि सभी एकेन्द्रिय असंज्ञी ही हैं। छठा असत्यामृषावचनयोग, द्वीन्द्रिय आदि की अपेक्षा से; क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रिय, ये सभी असंज्ञी हैं। द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीव, भाषालब्धियुक्त होते हैं; इसलिये उनमें असत्यामृषावचनयोग होता है।
विकलेन्द्रिय में चार योग कहे गये हैं; क्योंकि वे, वैक्रियलब्धिसम्पन्न न होने के कारण वैक्रिय शरीर नहीं बना सकते। इसलिये उनमें असंज्ञीसम्बन्धी छह योगों में से वैक्रिय - द्विक नहीं होता ।। २७ ।।
कम्मुरलमीसविणु उरलदुगकम्मपढमं - तिममणवइ
मण, - वइसमइयछेयचक्खुमणनाणे ।
केवलदुगंमि ।। २८ ।। मनोवचस्सामायिकच्छेदचक्षुर्मनोज्ञाने ।
केवलद्विके ।। २८ ।।
कर्मोदारिकमिश्रं बिना औदारिकद्विककर्मप्रथमान्तिममनोवचः
अर्थ- मनोयोग, वचनयोग, सामायिकचारित्र, छेदोपस्थापनीयचारित्र, चक्षुर्दर्शन और मन: पर्यायज्ञान, इन छह मार्गणाओं में कार्मण तथा औदारिकमिश्र को छोड़कर तेरह योग होते हैं। केवल द्विक में औदारिक-द्विक, कार्मण, प्रथम तथा अन्तिम मनोयोग (सत्य तथा असत्यामृषामनोयोग ) और प्रथम तथा अन्तिम वचनयोग (सत्य तथा असत्यामृषावचनयोग), ये सात योग होते हैं | | २८ ॥
भावार्थ- मनोयोग आदि उपर्युक्त छह मार्गणाएँ पर्याप्त अवस्था में ही पायी जाती हैं। इसलिये इनमें कार्मण तथा औदारिकमिश्र, ये अपर्याप्त अवस्था - भावी दो योग, नहीं होते। केवली को केवलिसमुद्धात में ये योग होते हैं। इसलिये यद्यपि पर्याप्त अवस्था में भी इनका संभव है तथापि यह जानना चाहिये कि केवलिसमुद्धात में जब कि ये योग होते हैं, मनोयोग आदि उपर्युक्त छह में से कोई भी मार्गणा नहीं होती। इसी से इन छह मार्गणाओं में उक्त दो योग के सिवाय, शेष तेरह योग कहे गये हैं । १
केवल - द्विक में औदारिक- द्विक आदि सात योग कहे गये हैं, सो इस प्रकार - सयोगीकेवली को, औदारिक काययोग सदा ही रहता है; सिर्फ
१. देखिये, परिशिष्ट 'ध' ।
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