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गुणस्थानाधिकार
१०३ सासादनभावे ज्ञानं, वैकुर्विकाहारक औदारिकमिश्रम्। नैकेन्द्रियेषु सासादनं, नेहाधिकृतं श्रुतमतमपि।। ४९।।
अर्थ-सासादन-अवस्था में सम्यग्ज्ञान, वैक्रियशरीर तथा आहारकशरीर बनाने के समय औदारिक मिश्रकाययोग और एकेन्द्रिय जीवों में सासादन गुणस्थान का अभाव, ये तीन बातें यद्यपि सिद्धान्त सम्मत हैं तथापि इस ग्रन्थ में इनका अधिकार नहीं है।।४९।।
भावार्थ-कुछ विषयों पर सिद्धान्त और कर्मग्रन्थ का मत-भेद चला आता है। इनमें से तीन विषय इस गाथा में ग्रन्थकार ने दिखाये हैं
___ (क) सिद्धान्त' में दूसरे गुणस्थान के समय मति, श्रुत आदि को ज्ञान माना है, अज्ञान नहीं। इससे उलटा कर्मग्रन्थ में अज्ञान माना है, ज्ञान नहीं। सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि दूसरे गुणस्थान में वर्तमान जीव यद्यपि मिथ्यात्व के सन्मुख है, पर मिथ्यात्वी नहीं; उसमें सम्यक्त्व का अंश होने से कुछ विशुद्धि है; इसलिये उसके ज्ञान को ज्ञान मानना चाहिये। कर्मग्रन्थ का आशय यह है कि द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्वी न सही, पर वह मिथ्यात्व के अभिमुख है; इसलिये उसके परिणाम में मालिन्य अधिक होता है; इससे उसके ज्ञान को अज्ञान कहना चाहिये।
१. भगवती में द्वीन्द्रियों को ज्ञानी भी कहा है। इस कथन से यह प्रमाणित होता है कि
सासादन-अवस्था में ज्ञान मान करके ही सिद्धान्तों द्वीन्द्रियों को ज्ञानी कहते हैं, क्योंकि उनमें दूसरे से आगे के सब गुणस्थानों का अभाव ही है। पञ्चेन्द्रियों को ज्ञानी कहा है, उसका समर्थन तो तीसरे, चौथे आदि गुणस्थानों की अपेक्षा से भी किया जा सकता है, पर द्वीन्द्रियों में तीसरे आदि गुणस्थानों का अभाव होने के कारण सिर्फ सासादननुणस्थान की अपेक्षा से ही ज्ञानित्व घटाया जा सकता है। यह बात प्रज्ञापनाटीका में स्पष्ट लिखी हुई है। उसमें कहा है कि द्वीन्द्रिय को दो ज्ञान कैसे घट सकते हैं? उत्तर-उसको अपर्याप्त-अवस्था में सासादनगुणस्थान होता है, इस अपेक्षा से दो ज्ञान घट सकते हैं। 'बेइंदियाणं भंते! किं नाणी अन्नाणी? गोयमा! णाणी वि अण्णाणी वि। जे नाणी ते नियमा दुनाणी। तं जहाँ-आभिणिबोहियनाणी सुयणाणी। जे अण्णाणी ते वि नियमा दुअन्नाणी। तं जहा-मइअन्नाणी सुयअन्नाणी या'
-भगवती-शतक ८, उ. २। 'बेइंदियस्स दो णाणा कहं लब्मंति? भण्णइ, सासायणं पडुच्च तस्सापज्जत्तयस्स दो णाणा लन्मंति।' दूसरे गुणस्थान के समय कर्मग्रन्थ के मतानुसार अज्ञान माना जाता है, सो २० तथा ४८वी गाथा से स्पष्ट है। गोम्मटसार में कार्म ग्रन्थिक ही मत है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की ६८६ तथा ७०४वीं गाथा।
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