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________________ चौथा कर्मग्रन्थ (३) - गुणस्थानों में उपयोग' । अजइ देसि तिअनाणदुदंसाइम, - दुगे नाणदंसतिगं । ते मीसि मीसा समणा, जयाइ केवलदु अंतदुगे । । ४८ । । त्र्यज्ञानद्विदर्शमादिमद्विकेऽयते देशे ज्ञानदर्शनत्रिकम् । ते मिश्र मिश्राः समनसो, यतादिषु केवलद्विकमन्तद्विके । । ४८ ।। , अर्थ-मिथ्यात्व और सासादन, इन दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान और दो दर्शन, ये पाँच उपयोग हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति इन दो गुणस्थानों में तीन ज्ञान, तीन दर्शन, ये छ: उपयोग हैं। मिश्रगुणस्थान में भी तीन ज्ञान, तीन दर्शन, ये छ: उपयोग हैं, पर ज्ञान, अज्ञान - मिश्रित होते हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीण मोहनीय तक सात गुणस्थानों में उक्त छः और मनःपर्यायज्ञान, ये सात उपयोग हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इन दो गुणस्थानों में केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग हैं | | ४८ || १०२ भावार्थ- पहले और दूसरे गुणस्थान में सम्यक्त्व का अभाव है; इसी से उनमें सम्यक्त्व के सहचारी पाँच ज्ञान, अवधिदर्शन और केवलदर्शन, ये सात उपयोग नहीं होते, शेष पाँच होते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में मिथ्यात्व न होने से तीन अज्ञान, सर्वविरति न होने से मनःपर्यायज्ञान और घातिकर्म का अभाव न होने से केवल-द्विक, ये कुल छः उपयोग नहीं होते, शेष छः होते हैं। तीसरे गुणस्थान में भी तीन ज्ञान और तीन दर्शन, ये ही छः उपयोग हैं। पर दृष्टि, मिश्रित (शुद्धाशुद्ध-उभयरूप ) होने के कारण ज्ञान, अज्ञान- मिश्रित होता है। छठे से बारहवें तक सात गुणस्थानों में मिथ्यात्व न होने के कारण अज्ञानत्रिक नहीं है और घातिकर्म का क्षय न होने के कारण केवलद्विक नहीं है। इस तरह पाँच को छोड़कर शेष सात उपयोग उनमें समझने चाहिये । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में घातिकर्म न होने से छद्मस्य अवस्थाभावी दस उपयोग नहीं होते, सिर्फ केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो ही, उपयोग होते हैं ॥४८॥ सिद्धान्त के कुछ मन्तव्य सासणभावे नाणं, विउव्वगाहारगे नेगिंदिसु सासाणो, नेहाहिगयं सुयमयं उरलमिस्सं । पि । । ४९ ।। १. यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वा. १ की १९.२०वीं; प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ७०.७१वीं और गोम्मटसार - जीवकाण्ड की ७०४वीं गाथा में है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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