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चौथा कर्मग्रन्थ
योग सम्बन्धी विचार
गुणस्थान और योग के विचार में अन्तर क्या है ? गुणस्थान के किंवा अज्ञान व ज्ञान की भूमिकाओं के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि आत्मा का आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है और योग के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि मोक्ष का साधन क्या है। अर्थात् गुणस्थान में आध्यात्मिक विकास के क्रम का विचार मुख्य है और योग में मोक्ष के साधन का विचार मुख्य है। इस प्रकार दोनों का मुख्य प्रतिपाद्य तत्त्व भिन्न-भिन्न होने पर एक के विचार में दूसरे की छाया अवश्य आ जाती है, क्योंकि कोई भी आत्मा मोक्ष के अन्तिम— अनन्तर या अव्यवहित — साधन को प्रथम ही प्राप्त नहीं कर सकती, किन्तु विकास के क्रमानुसार उत्तरोत्तर सम्भावित साधनों को सोपान - परम्परा की तरह प्राप्त करती हुई अन्त में चरम साधन को प्राप्त कर लेती है। अतएव योग केमोक्ष - साधन-विषयक विचार में आध्यात्मिक विकास के क्रम की छाया आ ही जाती है। इसी तरह आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है, इसका विचार करते समय आत्मा के शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम परिणाम, जो मोक्ष के साधनभूत हैं, उनकी छाया भी आ ही जाती है। इसलिये गुणस्थान के वर्णन - प्रसङ्ग में योग का स्वरूप संक्षेप में दिखा देना अप्रासङ्गिक नहीं है।
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योग किसे कहते हैं ?- -आत्मा का जो धर्म-व्यापार मोक्ष का मुख्य हेतु अर्थात् उपादान कारण तथा बिना विलम्ब से फल देने वाला हो, उसे योग कहते हैं। ऐसा व्यापार प्रणिधान आदि शुभ भाव या शुभ- भावपूर्वक की जानेवाली क्रिया
धीः सम्यग्योजिता पारमसम्यग्योजिताऽऽपदम्। नरं नयति संसारे भ्रमन्ती नौरिवाऽर्णवे ॥ ३६ ॥ विवेकिनमसंमूढं प्राज्ञमाशागणोत्थिताः। दोषा न परिबाधन्ते सन्नद्धमिव सायकाः ॥ ३७॥ प्रज्ञयेह जगत्सर्वे सम्यगेवाङ्ग दृश्यते । सम्यग्दर्शनमायान्ति नाऽऽपदो न च संपदः ॥ ३८ ॥ पिधानं परमार्कस्य जडात्माविततोऽसितः ।
अहंकाराम्बुदो मत्तः प्रज्ञावातेन बाध्यते ||३९|| ' ( उपशम- प्र., प्रज्ञामाहात्म्य)
१. मोक्षेण योजनादेव योगो ह्यत्र निरुच्यते।
लक्षणं तेन तन्मुख्यहेतुव्यापारतास्य तु || १ || ( योजलक्षण द्वात्रिंशिका )
२. प्रणिधानं प्रवृत्तिश्च तथा विघ्नजयस्त्रिधा ।
सिद्धिश्च विनियोगश्च एते कर्मशुभाशयाः ॥ १० ॥
एतैराशययोगैस्तु विना धर्माय न क्रिया ।
प्रत्युत प्रत्यपायाय लोभक्रोधक्रिया यथा ।। १६ ।। (योगलक्षणद्वात्रिंशिका )
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