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________________ प्रस्तावना है । पातञ्जलदर्शन में चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग' कहा है। उसका भी वही मतलब है, अर्थात् ऐसा निरोध मोक्ष का मुख्य कारण है, क्योंकि उसके साथ कारण और कार्य रूप से शुभ भाव का अवश्य सम्बन्ध होता है। - योग का आरम्भ कब से होता है ?- -आत्मा अनादि काल से जन्म-मृत्यु के प्रवाह में पड़ी है और उसमें नाना प्रकार के व्यापारों को करती रहती है। इसलिये यह प्रश्न पैदा होता है कि उसके व्यापार को कब से योगस्वरूप माना जाय ? इसका उत्तर शास्त्र में यह दिया गया है कि जब तक आत्मा मिथ्यात्व से व्याप्त बुद्धिवाली, अतएव दिङ्मूढ की तरह उलटी दिशा में गति करने वाली अर्थात् आत्मलक्ष्य से भ्रष्ट हो, तब तक उसका व्यापार प्रणिधान आदि शुभभाव रहित होने के योग नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत जब से मिथ्यात्व का तिमिर कम होने के कारण आत्मा की भ्रान्ति मिटने लगती है और उसकी गति सीधी अर्थात् सन्मार्ग के अभिमुख हो जाती है, तभी से उसके व्यापार को प्रणिधान आदि शुभ भाव सहित होने के कारण 'योग' संज्ञा दी जा सकती है। सारांश यह है कि आत्मा के आनादि सांसारिक काल के दो हिस्से हो जाते हैं- एक चरमपुद्गलपरावर्त्त और दूसरा अचरमपुद्गलपरावर्त। चरमपुद्गलपरावर्त अनादि सांसारिक काल का आखिरी और बहुत छोटा अंश है। अचरमपुद्गलपरावर्त उसका बहुत बड़ा भाग है; क्योंकि चरमपुद्गलपरावर्त को छोड़कर अनादि सांसारिक काल, जो अनन्तकालचक्र - परिमाण है, वह सब अचरमपुद्गलपरावर्त कहलाता है। आत्मा का सांसारिक काल, जब चरमपुद्गलपरावर्त-परिमाण बाकी रहता है, तब उसके ऊपर से मिथ्यात्वमोह का आवरण हटने लगता है। अतएव उसके परिणाम निर्मल होने लगते हैं और क्रिया भी निर्मल भावपूर्वक होती है। ऐसी क्रिया से भाव - ‍ -शुद्धि और भी बढ़ती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर के भाव- शुद्धि बढ़ते जाने कारण चरमपुद्गलपरावर्तकालीन धर्म-व्यापार को योग कहा है। अचरमपुद्गलपरावर्त १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। - पातञ्जलयोगसूत्र, पा. १, सू. २। २. मुख्यत्वं चान्तरङ्गत्वातऽत्फलाक्षेपाच्च दर्शितम् । चरमे पुद्गलावर्ते यत एतस्य संभवः ॥ २ ॥ न सम्मार्गाभिमुख्यं स्यादावर्तेषु परेषु तु । मिथ्यात्वच्छन्नबुद्धीनां दिङमढानामिवाङ्गिनाम् ||३||' (योगलक्षणद्वात्रिंशिका ) ३. चरमावर्तिनो जन्तो, सिद्धेरासन्नता ध्रुवम् । भूयांसोऽभी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ ||२८||' xxxi Jain Education International (मुक्त्यद्वेषप्राधान्यद्वात्रिंशिका) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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