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चौथा कर्मग्रन्थ
घातिकर्म का ही होता है; इस कारण क्षायोपशमिक-भाव घातिकर्म का ही माना गया है। विशेषता इतनी है कि केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन दो घातिकर्म-प्रकृतिओं के विपाकोदय का निरोध न होने के कारण इनका क्षयोपशम नहीं होता। क्षायिक, पारिणामिक और औदयिक, ये तीन भाव आठों कर्म के हैं; क्योंकि क्षय, परिणमन और उदय, ये तीन अवस्थाएँ आठों कर्म की होती हैं। सारांश यह है कि मोहनीयकर्म के पाँचों भाव, मोहनीय के अतिरिक्त तीन घातिकर्म के चार भाव और चार अघातिकर्म के तीन भाव हैं।
अजीवद्रव्य के भाव अधर्मास्तिकाय,
धर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय, ये पाँच अजीवद्रव्य हैं । पुद्गलास्तिकाय के अतिरिक्त शेष चार अजीवद्रव्यों के पारिणामिक-भाव ही होता है। धर्मास्तिकाय, जीव- पुद्गलों की गति में सहायक बनने रूप अपने कार्य में अनादि काल से परिणत हुआ करता है । अधर्मास्तिकाय, स्थिति में सहायक बनने रूप कार्य में, आकाशास्तिकाय, अवकाश देने रूप कार्य में और काल, समय-पर्याय रूप स्व-कार्य में अनादि काल से परिणमन किया करता है। पुद्गलद्रव्य के पारिणामिक और औदयिक, ये दो भाव हैं। परमाणु-पुद्गल का तो केवल पारिणामिक - भाव है; पर स्कन्धरूप पुद्गल के पारिणामिक और औदयिक, ये दो भाव हैं। स्कन्धों में भी द्यणुकादि सादि स्कन्ध पारिणामिक - भाववाले ही हैं, लेकिन औदारिक आदि शरीररूप स्कन्ध पारिणामिक-औदयिक दो भाववाले हैं। क्योंकि ये स्व-स्व-रूप में परिणत होते रहने के कारण पारिणामिक - भाववाले और औदारिक आदि शरीरनामकर्म के उदय - जन्य होने के कारण औदयिक भाववाले हैं।
पुद्गलद्रव्य के दो भाव कहे हुए हैं, सो कर्म - पुद्गल से भिन्न पुद्गल को समझने चाहिये। कर्म- पुद्गल के तो औपशमिक आदि पाँचों भाव हैं, जो ऊपर बतलाये गये हैं॥ ६९ ॥
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