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गुणस्थानाधिकार
१३१ (११) गुणस्थानों में मूल भाव।
(एक जीव की अपेक्षा से) संमाइचउसु तिग चउ, भावा चउ पणुवसामगुवसंते। चउ खीणापुव्व तिन्नि, सेसगुणट्ठाणगेगजिए।।७०।। सम्यगादिचतुर्पु त्रयश्वत्वारो, भावाश्चत्वारः पञ्चोपशमकोपशान्ते। चत्वारः क्षीणाऽपूर्वे त्रयः, शेषगुणस्थानक एकजीवे।।७०।।
अर्थ-एक जीव को सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में तीन या चार भाव होते हैं। उपशम (नौवें और दसवें) और उपशान्त (ग्यारहवें) गुणस्थान में चार या पाँच भाव होते हैं। क्षीणमोह तथा अपूर्वकरण-गुणस्थान में चार भाव होते हैं और शेष सब गुणस्थानों में तीन भाव।।७०॥
भावार्थ:-चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें, इन चार गुणस्थानों में तीन या चार भाव हैं। तीन भाव ये हैं—(१) औदयिक-मनुष्य आदि गति, (२) पारिणामिक-जीवत्व आदि और (३) क्षायोपशमिक-भावेन्द्रिय, सम्यक्त्व आदि। ये तीन भाव क्षायोपशमिकसम्यक्त्व के समय पाये जाते हैं। परन्तु जब क्षायिक या औपशमिक-सम्यक्त्व हो, तब इन दो में से कोई-एक सम्यक्त्व तथा उक्त तीन, इस प्रकार चार भाव समझने चाहिये।
नौवें, दसवें और ग्यारहवें, इन तीन गुणस्थानों में चार या पाँच भाव पाये जाते हैं। चार भाव उस समय, जब कि औपशमिक सम्यक्त्वी जीव उपशमश्रेणि वाला हो। चार भाव में तीन तो उक्त हैं और चौथा औपशमिक-सम्यक्त्व व चारित्र। पाँच में उक्त तीन, चौथा क्षायिकसम्यक्त्व और पाँचवाँ औपशमिकचारित्र।
आठवें और बारहवें, इन दो गुणस्थानों में चार भाव होते हैं। आठवें में उक्त तीन और औपशमिक और क्षायिक, इन दो में से कोई एक सम्यक्त्व, ये चार भाव समझने चाहिये। बारहवें में उक्त तीन और चौथा क्षायिकसम्यक्त्व व क्षायिकचारित्र, ये चार भाव।
शेष पाँच (पहले, दूसरे, तीसरे, तेरहवें और चौदहवें) गुणस्थानों में तीन भाव हैं। पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में औदयिक-मनुष्य आदि गति,
१. देखिये, परिशिष्ट 'फ'। २. देखिये, परिशिष्ट 'ब'।
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