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चौथा कर्मग्रन्थ
पारिणामिक—जीवत्व आदि और क्षायोपशमिक — भावेन्द्रिय आदि, ये तीन भाव हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में औदयिक – मनुष्यत्व, पारिणामिकजीवत्व और क्षायिक — ज्ञान आदि, ये तीन भाव हैं ।। ७० ।।
(१२) - संख्या का विचार ।
(सोलह गाथाओं से )
संख्या के भेद - प्रभेद ।
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परित्तजुत्तनियपयजुयं
तिविहं ।
संखिज्जेगमसंखं, एवमणंतं ति तिहा, जहन्नमज्झुक्कसा सव्वे ।।७१।। संख्येयमेकमसंख्यं, परिक्षयुक्तनिजपदयुतं त्रिविधम् ।
एवमनन्तमपि त्रिधा, जघन्यमध्योत्कृष्टानि सर्वाणि । । ७१ । ।
अर्थ- संख्यात एक है। असंख्यात के तीन भेद हैं- ( १ ) परीत्त, (२) युक्त और (३) निजपदयुक्त अर्थात् असंख्यातासंख्यात । इसी तरह अनन्त के भी तीन भेद हैं। इन सब के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन-तीन भेद हैं । । ७१ ॥
भावार्थ - शास्त्र में संख्या तीन प्रकार की बतलायी है - (१) संख्यात, (२) असंख्यात और (३) अनन्त । संख्यात का एक प्रकार, असंख्यात के तीन और अनन्त के तीन, इस तरह संख्या के कुल सात भेद हैं। प्रत्येक भेद के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से तीन-तीन भेद करने पर इक्कीस भेद होते हैं । सो इस प्रकार - १. जघन्य संख्यात, २. मध्यम संख्यात और ३. उत्कृष्ट संख्यात, ४. जघन्य परीत्तासंख्यात, ५. मध्यम परीत्तासंख्यात और ६. उत्कृष्ट
१. संख्या-विषयक विचार, अनुयोग-द्वार के २३४ से लेकर २४१वें पृष्ठ तक है। और लोकप्रकाश- सर्ग १के १२२ से लेकर २१२वें श्लो. तक में है। अनुयोगद्वार सूत्र
सैद्धान्तिक मत है। उसकी टीका में मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरि ने कार्मग्रन्थिक-मत का भी उल्लेख किया है। लोकप्रकाश में दोनों मत संगृहीत है। श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति-विरचित त्रिलोकसार की १३ से लेकर ५१ तक की गाथाओं में संख्या का विचार है। उसमें पल्य के स्थान में 'कुण्ड' शब्द प्रयुक्त है; वर्णन भी कुछ जुदे ढंग से है। उसका वर्णन कार्मग्रन्थिक मत से मिलता है। 'असंख्यात' शब्द बौद्ध साहित्य में है, जिसका अर्थ '१' के अङ्कपर एक सौ चालीस शून्य जितनी संख्या है। इसके लिये देखिये, चिल्डर्स पाली-अंगरेजी कोष का ५९वाँ पृष्ठ |
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