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चौथा कर्मग्रन्थ की महत्ता समझी जाती थी। दृष्टिवाद सब अङ्गों में प्रधान था, इसलिये व्यवहारदृष्टि से उसकी महत्ता रखने के लिये अन्य बड़े पड़ोसी समाज का अनुकरण कर लेना स्वाभाविक है। इस कारण पारमार्थिक-दृष्टि से स्त्री को संपूर्णतया योग्य मानते हुए भी आचार्यों ने व्यावहारिक दृष्टि से शारीरिक-अशद्धि का खयाल कर उसको, शाब्दिक-अध्ययन मात्र के लिये अयोग्य बतलाया होगा।
भगवान् गौतम बुद्ध ने स्त्रीजाति को भिक्षुपद के लिये अयोग्य निर्धारित किया था, परन्तु भगवान् महावीर ने तो प्रारम्भ से ही उसको पुरुष के समान भिक्षपद की अधिकारिणी निश्चित किया था। इसी से जैनशासन में चतुर्विध सङ्घ प्रारम्भ से ही स्थापित है और साधु तथा श्रावकों की अपेक्षा साध्वियों तथा श्रविकाओं की संख्या आरम्भ से ही अधिक रही है, परन्तु अपने प्रधान शिष्य 'आनन्द' के आग्रह से भगवान् बुद्ध ने जब स्त्रियों को भिक्षु पद दिया, तब उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ी और कुछ शताब्दियों के बाद अशिक्षा, कुप्रबन्ध आदि कई कारणों से उनमें बहुत-कुछ आचार-भ्रंश हुआ, जिससे कि बौद्धसङ्घ एक तरह से दूषित समझा जाने लगा। सम्भव है, इस परिस्थिति का जैनसम्प्रदाय पर भी कुछ असर पड़ा हो, जिससे दिगम्बर आचार्यों ने स्त्री को भिक्षपद के लिये ही अयोग्य करार दिया हो और श्वेताम्बर-आचार्यों ने ऐसा न करके स्त्रीजाति का उच्च अधिकार कायम रखते हुए भी दुर्बलता, इन्द्रिय-चपलता आदि दोषों को उस जाति में विशेष रूप से दिखाया हो; क्योंकि सहचर-समाजों के व्यवहारों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य है।
__ परिशिष्ट 'थ' पृष्ठ १०१, पङ्क्ति १२ के 'भावार्थ' पर
इस जगह चक्षुर्दर्शन में तेरह योग माने गये हैं, पर श्रीमलयगिरिजी ने उसमें ग्यारह योग बतलाये हैं। कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र ये चार योग छोड़ दिये हैं।
-पञ्च. द्वा. १ की १२वी गाथा की टीका। ग्यारह मानने का तात्पर्य यह है कि जैसे अपर्याप्त-अवस्था में चक्षुर्दर्शन न होने से उसमें कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो अपर्याप्त-अवस्था-भावी योग नहीं होते, वैसे ही वैक्रियमिश्र या आहारकमिश्र-काययोग रहता है, तब तक अर्थात् वैक्रियशरीर या आहारकशरीर अपूर्ण हो तब तक चक्षुर्दर्शन नहीं होता, इसलिये उसमें वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र-योग भी न मानने चाहिये।
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