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परिशिष्ट
'तेण चिन्तियं भगिणीणं इहिं दरिसेमित्ति सीहरूवं विउव्वइ।'
-आवश्यकवृत्ति, पृ. ६९८। 'ततो आयरिएहिं दुब्बलियपुस्समित्तो तस्स वायणायरिओ दिण्णो, ततो सो कइवि दिवसे वायणं दाऊण आयरियमुवट्ठितो भणइ मम वायणं देंतस्स नासति, जं च सण्णायघरे नाणुप्पेहियं, अतो मम अज्झरंतस्स नवमं पुव्वं नासिहिति, ताहे आयरिया चिन्तेति-जइ ताव एयस्स परममेहाविस्स एवं झरंतस्स नासइ अन्नस्स चिरनटुं चेवा' -आवश्यकवृत्ति, पृ. ३०८।
ऐसी वस्तु-स्थिति होने पर भी स्त्रियों को ही अध्ययन का निषेध क्यों किया गया? इस प्रश्न का उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है-१. समान सामग्री मिलने पर भी पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का कम संख्या में योग्य होना और २. ऐतिहासिक-परिस्थिति।
(१) जिन पश्चिमीय देशों में स्त्रियों को पढ़ने आदि की सामग्री पुरुषों के समान प्राप्त होती है, वहाँ का इतिहास देखने से यही जान पड़ता है कि स्त्रियाँ पुरुषों के तुल्य हो सकती हैं सही, पर योग्य व्यक्तियों की संख्या, स्त्रीजाति की अपेक्षा पुरुषजाति में अधिक पायी जाती है।
(२) कुन्दकुन्द-आचार्य जैसे प्रतिपादक दिगम्बर आचार्यों ने स्त्री-जाति को शारीरिक और मानसिक-दोष के कारण दीक्षा तक के लिये अयोग्य ठहराया।
"लिंगम्मि य इत्थीणं, थणंतरे णाहिकक्खदेसम्मि। भणिओ सुहमो काओ, तासं कह होइ पव्वज्जा।।'
-षट्पाहुड-सूत्रपाहुड गा. २४-२५। और वैदिक विद्वानों ने शारीरिक-शुद्धि को अग्र-स्थान देकर स्त्री और शूद्रजाति को सामान्यतः वेदाध्ययन के लिये अनधिकारी बतलाया
'स्त्रीशूद्रौ नाधीयातां'
इन विपक्षी सम्प्रदायों का इतना असर पड़ा कि उससे प्रभावित होकर पुरुषजाति के समान स्त्रीजाति की योग्यता मानते हुए भी श्वेताम्बर-आचार्य उसे विशेष-अध्ययन के लिये अयोग्य बतलाने लगे होंगे।
ग्यारह अङ्ग आदि पढ़ने का अधिकार मानते हुए भी सिर्फ बारहवें अग के निषेध का सबब यह भी जान पड़ता है कि दृष्टिवाद का व्यवहार में महत्त्व बना रहे। उस समय विशेषतया शारीरिक-शुद्धि पूर्वक पढ़ने में वेद आदि ग्रन्थों
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