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परिशिष्ट
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इस पर यह शङ्का हो सकती है कि अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने के बाद १७वीं गाथा में उल्लेखित मतान्तर के अनुसार यदि चक्षुर्दर्शन मान लिया जाय तो उसमें औदारिक मिश्र काययोग जो कि अपर्याप्तअवस्था-भावी है, उसका अभाव कैसे माना जा सकता है।
इस शङ्का का समाधान यह किया जा सकता है कि पञ्चसंग्रह में एक ऐसा मतान्तर है, जो कि अपर्याप्त-अवस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण न बन जाय तब तक मिश्रयोग मानता है, बन जाने के बाद नहीं मानता। -पञ्च. द्वा. १ की ७वीं गाथा की टीका। उस मत के अनुसार अपर्याप्त अवस्था में जब चक्षुर्दर्शन होता है तब मिश्रयोग न होने के कारण चक्षुर्दर्शन में औदारिकमिश्र काययोग का वर्जन विरुद्ध नहीं है।
इस जगह मन:पर्यायज्ञान में तेरह योग माने हुए हैं, जिनमें आहारक द्विक का समावेश है, पर गोम्मटसार-कर्मकाण्ड यह नहीं मानता; क्योंकि उसमें लिखा है कि परिहारविशुद्ध चारित्र और मन:पर्यायज्ञान के समय आहारक शरीर तथा आहारक-अङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय नहीं होता। कर्मकाण्ड गा. ३२४। जब तक आहारक-द्विक का उदय न हो, तब तक आहारक शरीर रचा नहीं जा सकता
और उसकी रचना के अतिरिक्त आहारकमिश्र और आहारक, ये दो योग असम्भव हैं। इससे सिद्ध है कि गोम्मटसार, मनःपर्यायज्ञान में दो आहारकयोग नहीं मानता। इसी बात की पुष्टि जीवकाण्ड की ७२८वीं गाथा से भी होती है। उसका मतलब इतना ही है कि मन:पर्यायज्ञान, परिहारविशद्धसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व और आहारक-द्विक, इन भावों में से किसी एक के प्राप्त होने पर शेष भाव प्राप्त नहीं होते।
परिशिष्ट 'द' पृष्ठ १०४, पति ६ के 'केवलिसमुद्धात' शब्द पर
(केवलिसमुद्धात के सम्बन्ध की कुछ बातों पर विचार) (क) पूर्वभावी क्रिया-केवलिसमुद्धात रचने के पहले एक विशेष क्रिया की जाती है, जो शुभयोग रूप है, जिसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और जिसका कार्य उदयावलिका में कर्मदलिकों का निक्षेप करना है। इस क्रिया-विशेष को 'आयोजिकाकरण' कहते हैं। मोक्ष की ओर आवर्जित (झुके हुए) आत्मा के
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