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________________ ३४ चौथा कर्मग्रन्थ मार्गणाओं की व्याख्या। भावार्थ-(१) गति—जो पर्याय, गतिनामकर्म के उदय से होते हैं और जिनसे जीव पर मनुष्य, तिर्यश्च, देव या नारक का व्यवहार होता है, 'गति' है। (२) इन्द्रिय- त्वचा, नेत्र आदि जिन साधनों से सर्दी-गर्मी, काले-पीले आदि विषयों का ज्ञान होता है और जो अङ्गोपाङ्ग तथा निर्माण-नामकर्म के उदय से प्राप्त होते हैं, वे 'इन्द्रिय' हैं। (३) काय- जिसकी रचना और वृद्धि यथायोग्य औदारिक, वैक्रिय आदि पुद्गल-स्कन्धों से होती है और जो शरीर-नामकर्म के उदय से बनता है, उसे 'काय' (शरीर) कहते हैं। (४) योग- वीर्य-शक्ति के जिस परिस्पन्द से-आत्मिक-प्रदेशों की हल चल से—गमन, भोजन आदि क्रियायें होती हैं और जो परिस्पन्द, शरीर, भाषा तथा मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होता है, वह 'योग' है। (५) वेद- संभोग-जन्य सुख के अनुभव की इच्छा, जो वेद-मोहनीयकर्म के उदय से होती है, वह 'वेद' है। (७) जिसके द्वारा जीव तीन काल-सम्बन्धी अनेक प्रकार के द्रव्य, गुण और पर्याय को जान सकता है, वह 'ज्ञान' है। -गा. २९८। (८) अहिंसा आदि व्रतों के धारण, ईर्या आदि समितियों के पालन, कषायों के निग्रह, मन आदि दण्ड के त्याग और इन्द्रियों की जय को 'संयम' कहा है। ___ -गा. ४६४। (९) पदार्थों के आकार को विशेषरूप से न जानकर सामान्यरूप से जानना, वह 'दर्शन' है। ___ -गा. ४८१। (१०) जिस परिणाम द्वारा जीव पुण्य-पाप कर्म को अपने साथ मिला लेता है, वह 'लेश्या है। -गा. ४८८ (११) जिन जीवों की सिद्धि कभी होने वाली हो-जो सिद्धि के योग्य हैं, वे 'भव्य और इसके विपरीत, जो कभी संसार से मुक्त न होंगे, वे 'अभव्य' है। -गा. ५५६। (१२) वीतराग के कहे हुये पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य या नव प्रकार के पदार्थों पर आज्ञापूर्वक या अधिगमपूर्वक (प्रमाण-नय-निक्षेप-द्वारा) श्रद्धा करना 'सम्यक्त्व' है। ___ -गा. ५६०१ (१३) नौ-इन्द्रिय (मन) के आवरण का क्षयोपशम या उससे होनेवाला ज्ञान, जिसे संज्ञा कहते हैं, उसे धारण करनेवाला जीव 'संज्ञी' और इसके विपरीत, जिसको मन के सिवाय अन्य इन्द्रियों से ज्ञान होता है, वह 'असंज्ञी' है। -गा. ६५९॥ (१४) औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीनों में से किसी भी शरीर के योग्य वर्गणाओं को यथायोग्य ग्रहण करने वाला जीव 'आहारक' है। -गा. ६६४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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