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मार्गणास्थान-अधिकार
(६) कषाय- किसी पर आसक्त होना या किसी से नाराज हो जाना, इत्यादि मानसिक-विकार, जो संसार-वृद्धि के कारण हैं और जो कषायमोहनीय कर्म के उदय-जन्य हैं, उनको 'कषाय' कहते हैं।
(७) ज्ञान- किसी वस्तु को विशेष रूप से जाननेवाला चेतनाशक्ति का व्यापार (उपयोग), 'ज्ञान' कहलाता है।
(८) संयम- कर्मबन्ध-जनक प्रवृत्ति से अलग हो जाना, 'संयम' कहलाता का उपयोग 'दर्शन' है।
(९) दर्शन- विषय को सामान्य रूप से जानने वाला चेतनाशक्ति का उपयोग 'दर्शन' है।
(१०) लेश्या- आत्मा के साथ कर्म का मेल करानेवाले परिणाम विशेष 'लेश्या ' है।
(११) भव्यत्व- मोक्ष पाने की योग्यता को ‘भव्यत्व' कहते हैं।
(१२) सम्यक्त्व- आत्मा के उस परिणाम को सम्यक्त्व कहते हैं. जो मोक्ष का अविरोधी है- जिसके व्यक्त होते ही आत्मा की प्रवृत्ति, मुख्यतया
अन्तर्मख (भीतर की ओर) हो जाती है। तत्त्व-रुचि, इसी परिणाम का फल है। प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता, ये पाँच लक्षण प्रायः सम्यक्त्वी में पाये जाते हैं।
(१३) संज्ञित्व- दीर्घकालिकी संज्ञा की प्राप्ति को ‘संज्ञित्व' कहते हैं।
(१४) आहारकत्व- किसी न किसी प्रकार के आहार को ग्रहण करना, 'आहारकत्व' है। १. यही बात भट्टारक श्रीअकलङ्कदेव ने कही है_ 'तस्मात् सम्यग्दर्शनमात्मपरिणामः श्रेयोभिमुखमध्यवस्यामः'
-तत्त्वा .अ. १, सू. २, राज. .१६। २. आहार तीन प्रकार का है—(१) ओज-आहार, (२) लोम-आहार और (३) कवल आहार। इनका लक्षण इस प्रकार है
'सरीरेणोयाहारो, तयाइ फासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण, कवलियो होइ नायव्यो।।'
गर्भ में उत्पन्न होने के जो शुक-शोणितरूप आहार, कार्मणशरीर के द्वारा लिया जाता है, वह ओज, वायु का त्वगिन्द्रिय द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, वह लोम और जो अङ्ग आदि खाद्य, मुख द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह कवल-आहार है। आहार का स्वरूप गोम्मटसार-जीवकाण्ड में इस प्रकार है
'उदयावण्णसरीरो,-दयेण तदेहवयणचित्ताणं। णोकम्मवग्गणाणं, गहणं आहारयं नाम।। ६६३।।'
शरीरनामकर्म के उदय से देह, वचन और द्रव्यमन के बनने योग्य जो कर्मवर्गणाओं का जो ग्रहण होता है, उसको 'आहार' कहते हैं।
दिगम्बर-साहित्य में आहार के छह भेद किये हुये मिलते हैं। यथाJain Education International . For Private & Personal Use Only
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