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________________ गुणस्थानाधिकार १०७ चार बन्ध हेतु - (१ ) 'मिथ्यात्व', आत्मा का वह परिणाम है, जो मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदय से होता है और जिससे कदाग्रह, संशय आदि दोष पैदा होते हैं । (२) 'अविरति', वह परिणाम है, जो अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होता है और जो चारित्र को रोकता है। (३) 'कषाय', वह परिणाम है, जो चारित्रमोहनीय के उदय से होता है और जिससे क्षमा, विनय, सरलता, संतोष, गम्भीरता आदि गुण प्रगट होने नहीं पाते या बहुत कम प्रमाण में प्रकट होते हैं। (४) 'योग', आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्द (चाञ्चल्य) को कहते हैं, जो मन, वचन या शरीर के योग्य पुद्गलों के आलम्बन से होता है ॥ ५० ॥ १. ये ही चार बन्ध - हेतु पञ्चसंग्रह-द्वा. ४कीं १ली गाथा तथा कर्मकाण्ड की ७८६वीं गाथा में है। यद्यपि तत्त्वार्थ के ८वें अध्याय के १ले सूत्र में चार हेतुओं के अतिरिक्त प्रमाद को भी बन्ध-हेतु माना है, परन्तु उसका समावेश अविरति, कषाय आदि हेतुओं में हो जाता है। जैसे - विषय - सेवनरूप प्रमाद, अविरति और लब्धि-प्रयोगरूप प्रमाद, योग है। वस्तुतः कषाय और योग, ये दो बन्ध- - हेतु समझने चाहिये; क्योंकि मिथ्यात्व और अविरति, कषाय के ही अन्तर्गत है । इसी अभिप्राय से पाँचवें कर्मग्रन्थ की ६९वीं गाथा में दो ही बन्ध- हेतु माने गये हैं। इस जगह कर्म-बन्ध के सामान्य हेतु दिखाये हैं, सो निश्चयदृष्टि से; अत एव उन्हें ५४ से ६१ तक की गाथाओं में; अन्तरङ्ग हेतु समझना चाहिये। पहले कर्मग्रन्थ की तत्त्वार्थ के छठे अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्र में तथा कर्मकाण्ड की ८०० से ८१० तक की गाथाओं में हर एक कर्म के अलग-अलग बन्ध-हेतु कहे हुए हैं, सो व्यवहारदृष्टि से; अत एव उन्हें बहिरङ्ग हेतु समझना चाहिये । शङ्का – प्रत्येक समय में आयु के सिवाय सात कर्मों का बाँधा जाना प्रज्ञापना के २०वें पद में कहा गया है; इसलिये ज्ञान, ज्ञानी आदि पर प्रद्वेष या उनका निह्नव करते समय भी ज्ञानावरणीव, दर्शनावरणीय की तरह अन्य कर्मों का बन्ध होता ही है। इस अवस्था में 'तत्त्वदोषनिह्नव' आदि तत्त्वार्थ के छठे अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्रों में कहे हुए आस्त्रव, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय आदि कर्म के विशेष हेतु कैसे कहे जा सकते हैं? समाधान—तत्प्रदोषनिह्नव आदि आस्रवों को प्रत्येक कर्म का विशेष - विशेष हेतु कहा है, सो अनुभागबन्ध की अपेक्षा से, प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से नहीं। अर्थात् किसी भी आस्रव के सेवन के समय प्रकृतिबन्ध सब प्रकार का होता है। अनुभागबन्ध में फर्क है। जैसे— ज्ञान, ज्ञानी, ज्ञानोपकरण आदि पर प्रद्वष करने के समय ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की तरह अन्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, पर उस समय अनुभागबन्ध विशेष रूप से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का ही होता है। सारांश, विशेष हेतुओं का विभाग अनुभागबन्ध की अपेक्षा से किया गया है, प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से नहीं। Jain Education International - तत्त्वार्थ- अ. सू. २७की सर्वार्थसिद्धि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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