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________________ १०६ चौथा कर्मग्रन्थ छः गुणस्थानों में केवल शुक्ललेश्या है। चौदहवें गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं है। बन्ध ध- हेतु - कर्म-बन्ध के चार हेतु हैं - १. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. कषाय और ४. योग ॥ ५० ॥ भावार्थ- प्रत्येक लेश्या, असंख्यात लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण अध्यवसायस्थान (संक्लेश - मिश्रित परिणाम ) रूप है; इसलिये उसके तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि उतने ही भेद समझने चाहिये । अतएव कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं को छठे गुणस्थान में अतिमन्दतम और पहले गुणस्थान में अतितीव्रतम मानकर छः गुणस्थानों तक उनका सम्बन्ध कहा गया है। सातवें गुणस्थान में आर्त तथा रौद्रध्यान न होने के कारण परिणाम इतने विशुद्ध रहते हैं, जिससे उस गुणस्थान में अशुभ लेश्याएँ सर्वथा नहीं होती; किन्तु तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। पहले गुणस्थान में तेज और पद्म- लेश्या को अतिमन्दतम और सातवें गुणस्थान में अतितीव्रतम, इसी प्रकार शुक्ललेश्या को भी पहले गुणस्थान में अतिमन्दतम और तेरहवें में अतितीव्रतम मानकर उपर्युक्त रीति से गुणस्थानों से उनका सम्बन्ध बतलाया गया है। इसका विवेचन श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भाष्य की २७४१ से ४२ तक की गाथाओं में, श्रीहरिभद्रसूरि ने अपनी टीका में और मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरि ने भाष्यवृत्ति में विस्तारपूर्वक किया है। इस विषय के लिये लोकप्रकाश के ३ रे सर्ग के ३१३ से ३२३ तक के श्लोक द्रष्टव्य हैं। चौथा गुणस्थान प्राप्त होने के समय द्रव्यलेश्या शुभ और अशुभ, दोनों मानी जाती हैं और भावलेश्या शुभ ही । इसलिये यह शङ्का होती है कि क्या अशुभ द्रव्यलेश्यावालों को भी शुभ भावलेश्या होती है ? इसका समाधान यह है कि द्रव्यलेश्या और भावलेश्या सम्बन्ध में यह नियम नहीं है कि दोनों समान ही होनी चाहिये, क्योंकि यद्यपि मनुष्य- तिर्यञ्च, जिनकी द्रव्यलेश्या अस्थिर होती है, उनमें तो जैसी द्रव्यलेश्या वैसी ही भावलेश्या होती है। पर देवनारक, जिनकी द्रव्यलेश्या अवस्थित (स्थिर) मानी गयी है, उनके विषय में इससे उलटा है। अर्थात् नारकों में अशुभ द्रव्यलेश्या के होते हुए भी भावलेश्या शुभ हो सकती है। इसी प्रकार शुभ द्रव्यलेश्यावाले देवों में भावलेश्या अशुभ भी हो सकती है। इस बात को खुलासे से समझने के लिये प्रज्ञापना का १७वाँ पद तथा उसकी टीका देखनी चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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