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गुणस्थानाधिकार
१०५ (१) सिद्धान्ती, अवधिदर्शन को पहले बारह गुणस्थानों में मानते हैं, पर कार्मग्रन्थिक उसे चौथे से बारहवें तक नौ गुणस्थानों में, (२) सिद्धान्त में ग्रन्थिभेद के अनन्तर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का होना माना गया है, किन्तु कर्मग्रन्थ में औपशमिक सम्यक्त्व का होना।।४९।।
(४-५)-गुणस्थानों में लेश्या तथा बन्ध-हेतु। छसु सव्वा तेउतिगं, इगि छसु सुक्का अयोगि अल्लेसा। बंधस्स मिच्छ अविरइ,-कसायजोग त्ति चउ हेऊ।।५।। षट्सु सर्वास्तेजस्त्रिकमेकस्मिन् षट्सु शुक्लाऽयोगिनोऽलेश्याः। बन्यस्य मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा इति चत्वारो हेतवः।।५।।
अर्थ-पहले छ: गणस्थानों में छ: लेश्याएँ हैं। एक (सातवें गुणस्थान में) तेजः, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएँ हैं। आठवें से लेकर तेरहवें तक
दिगम्बर-संप्रदाय में सैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिक दोनों मत संगृहीत हैं। कर्मकाण्ड की ११३ से ११५ तक की गाथा देखने से एकेन्द्रियों में सासादन-भाव का स्वीकार स्पष्ट मालूम होता है। तत्त्वार्थ, अ. १ के ८वें सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में तथा जीवकाण्ड
की ६७७वीं गाथा में सैद्धान्तिक मत है। १. गुणस्थान में लेश्या या लेश्या में गुणस्थान मानने के सम्बन्ध में दो मत चले आते
हैं। पहला मत पहले चार गुणस्थानों में छ: लेश्याएँ और दूसरा मत पहले छह गुणस्थानों में छः लेश्याएँ मानता है। पहला मत पञ्चसंग्रह-द्वा. १, गा. ३०; प्राचीन बन्धस्वामित्व, गा. ४०; नवीन बन्धत्वामित्व, गा. २५; सर्वार्थसिद्धि, पृ. २४ और गोम्मटसार-जीवकाण्ड, गा. ७०३ के भावार्थ में हैं। दूसरा मत प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ, ग्रा. ७३ में तथा यहाँ है। दोनों मत अपेक्षा कृत है, अत: इनमें कुछ भी विरोध नहीं है। पहले मत का आशय यह है कि छहों प्रकार की द्रव्यलेश्यावालों को चौथा गुणस्थान प्राप्त होता है, पर पाँचवाँ या छठा गुणस्थान सिर्फ तीन शुभ द्रव्यलेश्यावालों की। इसलिये गुणस्थान प्राप्ति के समय वर्तमान द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से चौथे गुणस्थान पर्यन्त छह लेश्याएँ माननी चाहिये और पाँचवें और छठे में तीन है। दूसरे मत का आशय यह है कि यद्यपि छहों लेश्याओं के समय चौथा गुणस्थान और तीन शुभ द्रव्यलेश्याओं के समय पाँचवाँ और छठाँ गुणस्थान प्राप्त होता है, परन्तु प्राप्त होने के बाद चौथे, पाँचवें और छठे, तीनों गुणस्थानवालों में छहों द्रव्यलेश्याएँ पायी जाती हैं। इसलिये गुणस्थान-प्राप्ति के उत्तर-काल में वर्तमान द्रव्यलेश्याओं की अपेक्षा से छठे गुणस्थान पर्यन्त छह लेश्याएँ मानी जाती है। इस जगह यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि चौथा, पाँचवाँ और छठा गुणस्थान प्राप्त होने के समय भावलेश्या तो शुभ ही होती है, अशुभ नहीं, पर प्राप्त होने के बाद भावलेश्या भी अशुभ हो सकती है।
'सम्मत्तसुयं सव्वा स.-लहइ, सुद्धासु तीस य चरित्तं। पुव्वपडिवण्णगो पुण, अण्णयरीए उ लेसाए।'
__ -आवश्यक-नियुक्ति, गा. ८२२।
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