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________________ १०८ चौथा कर्मग्रन्थ बन्ध-हेतुओं के उत्तरभेद तथा गुणस्थानों में मूल बन्ध-हेतु। (दो गाथाओं से) अभिगहियमणभिगहिया,-भिनिवेसियसंसइयमणाभोगं। पण मिच्छ बार अविरइ, मणकरणानियम छजियवहो।।५।। आभिग्रहिकमनाभिग्रहिकामिनिवेशिकसांशयिकमनाभोगम्। पञ्चमिथ्यात्वानि द्वादशाविरतयो, मनःकरणानियमः षड्जीववधः।।५१।। अर्थ-मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं-१. आभिग्रहिक, २. अनाभिकग्रहिक, ३. आभिनिवेशिक, ४. सांशयिक और ५. अनाभोग। ___ अविरति के बारह भेद हैं। जैसे—मन और पाँच इन्द्रियाँ, इन छ: को नियम में न रखना, ये छ: तथा पृथ्वीकाय आदि छ: कायों का बध करना, ये छह।।५१॥ भावार्थ-१. तत्त्व की परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धान्त का पक्षपात करके अन्य पक्ष का खण्डन करना 'आभिग्रहिक मिथ्यात्व'२ है। २. गुणदोष की परीक्षा बिना किये ही सब पक्षों को बराबर समझना 'अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व'३ है। ३. अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिये दरभिनिवेश (दुराग्रह) करना 'आभिनिवेशिक मिथ्यात्व'४ है। ४. ऐसा देव १. यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वा. ४की २ से ४ तक की गाथाओं में तथा गोम्मटसार-कर्म काण्ड की ७८६ से ७८८ तक की गाथाओं में है। गोम्मटसार में मिथ्यात्व के १ एकान्त, २ विपरीत, ३ वैनयिक, ४ सांशयिक और ५ अज्ञान, ये पाँच प्रकार है। -जी.,गा. १५। अविरति के लिये जीवकाण्ड की २९ तथा ४७७वीं गाथा और कषाय व योग के लिये क्रमश: उसकी कषाय व योगमार्गणा देखनी चाहिये। तत्त्वार्थ के ८वें अध्याय के १ ले सूत्र के भाष्य में मिथ्यात्व के अभिगृहीत और अनभिगृहीत, ये दो ही भेद है। २. सम्यक्त्वी, कदापि अपरीक्षित सिद्धान्त का पक्षपात नहीं करता, अत एव जो व्यक्ति तत्त्व परीक्षापूर्वक किसी एक पक्ष को मानकर अन्य पक्ष का खण्डन करता है, वह 'आभिग्रहिक' नहीं है। जो कुलाचारमात्र से अपने को जैन (सम्यक्त्वी ) मानकर तत्त्व की परीक्षा नहीं करता; वह नाम से 'जैन' परन्तु वस्तुत: 'आभिग्रहिकमिथ्यात्वी' है। माषतुष मुनि आदि की तरह तत्त्व-परीक्षा करने में स्वयं असमर्थ लोग यदि गीतार्थ (यथार्थ-परीक्षक) के आश्रित हों तो उन्हें 'आभिग्रहिकमिथ्यात्वी' नहीं समझना, क्योंकि गीतार्थ के आश्रित रहने से मिथ्या पक्षपातका संभव नहीं रहता। ___-धर्मसंग्रह, पृ. ४०/१। ३. यह मन्दबुद्धि वाले व परीक्षा करने में असमर्थ साधारण लोगों में पाया जाता है। ऐसे लोग अकसर कहा करते हैं कि सब धर्म बराबर हैं। ४. सिर्फ उपयोग न रहने के कारण या मार्ग-दर्शक की गलती के कारण, जिसकी श्रद्धा विपरीत हो जाती है, वह 'आभिनिवेशिकमिथ्यात्वी'; क्योंकि यथार्थ-वक्ता मिलने पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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