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________________ गुणस्थानाधिकार १०९ होगा या अन्य प्रकार का, इसी तरह गुरु और धर्म के विषय में संदेहशील बने रहना 'सांशयिक मिथ्यात्व'१ है। ५. विचार व विशेष ज्ञान का अभाव अर्थात् मोह की प्रगाढतम अवस्था 'अनाभोग मिथ्यात्व'२ है। इन पाँच में से आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक, ये दो मिथ्यात्व, गुरु हैं और शेष तीन लघु; क्योंकि वे दोनों विपर्यास रूप होने से तीव्र क्लेश के कारण हैं और शेष तीन विपर्यास रूप न होने से तीव्र क्लेश के कारण नहीं हैं। ____ मन को अपने विषय में स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवृत्ति करने देना मन अविरति है। इसी प्रकार त्वचा, जिह्वा आदि पाँच इन्द्रियों की अविरति को भी समझ लेना चाहिए। पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करना पृथ्वीकाय-अविरति है। शेष पाँच कायों की अविरति को इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। ये बारह अविरतियाँ मुख्य हैं। मृषावाद-अविरति, अदत्तादान-अविरति आदि सब अविरतिओं का समावेश इन बारह में ही हो जाता है। मिथ्यात्व मोहनीयकर्म का औदयिक-परिणाम ही मुख्यतया मिथ्यात्व कहलाता है। परन्तु इस जगह उससे होनेवाली आभिग्रहिक आदि बाह्य प्रवृत्तिओं को मिथ्यात्व कहा है, सो कार्य-कारण के भेद की विवक्षा न करके। इसी तरह अविरति, एक प्रकार का काषायिक परिणाम ही है, परन्तु कारण से कार्य को भिन्न न मानकर इस जगह मनोऽसंयम आदि को अविरति कहा है। देखा जाता है कि मन आदि का असंयम या जीव-हिंसा ये सब कषायजन्य ही हैं।॥५१॥ उसको श्रद्धा तात्त्विक बन जाती है, अर्थात् यथार्थ-वक्ता मिलने पर भी श्रद्धा का विपरीत बना रहना दुरर्भिनिवेश है। यद्यपि श्रीसिद्धसेन दिवाकर, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों ने अपने-अपने पक्ष का समर्थन करके बहुत-कुछ कहा है, तथापि उन्हें 'आभिनिवेशिकमिथ्यात्वी' नहीं कह सकते; क्योंकि उन्होंने अविच्छिन्न प्रावचनिक परम्परा के आधार पर शास्त्र-तात्पर्य को अपने-अपने पक्ष के अनुकूल समझकर अपने-अपने पक्ष का समर्थन किया है, पक्षपात से नहीं। इसके विपरीत जमालि, गोष्ठामाहिल आदि ने शास्त्र-तात्पर्य को स्व-पक्ष के प्रतिकूल जानते हुए भी निज-पक्ष का समर्थन किया; इसलिये वे 'आभिनिवेशिक' कहे जाते हैं। -धर्म. पृ. ४०। १. सूक्ष्म विषयों का संशय उञ्च-कोटि के साधुओं में भी पाया जाता है, पर वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, क्योंकि अन्तत:_ 'तमेव सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं।' इत्यादि भावना से आगम को प्रमाण मानकर ऐसे संशयों का निवर्तन किया जाता है। इसलिये जो संशय, आगम-प्रामाण्य के द्वारा भी निवृत्त नहीं होता, वह अन्ततः अनाचार का सम्पादक होने के कारण मिथ्यात्वरूप है। -धर्मसंग्रह पृ. ४१/११ २. यह, एकेन्द्रिय आदि क्षुद्रतम जन्तुओं में और मूढ प्राणियों में होता है। -धर्मसंग्रह, पृ. ५०/१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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