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________________ ११० चौथा कर्मग्रन्थ नव सोल कसाया पन,- र जोग इय उत्तरा उ सगवन्ना। इगचउपणतिगुणेसु, चउतिदुइगपञ्चओ बंधो।। ५२।। नव षोडश कषायाः पञ्चदश योगा इत्युत्तरास्तु सप्त्पञ्चाशत्। एकचतुष्पञ्चत्रिगुणेषु, चतुस्त्रिोकप्रत्ययो बन्यः।। ५२।। अर्थ-कषाय के नौ और सोलह, कुल पच्चीस भेद हैं। योग के पन्द्रह भेद हैं। इस प्रकार सब मिलाकर बन्ध-हेतुओं के उत्तर-भेद सत्तावन होते हैं। एक (पहले) गुणस्थान में चारों हेतुओं से बन्ध होता है। दूसरे से पाँचवें तक चार गुणस्थानों में तीन हेतुओं से, छठे से दसवें तक पाँच गुणस्थानों में दो हेतुओं से और ग्यारहवें से तेरहवें तक तीन गुणस्थानों में एक हेतु से बन्ध होता है।।५२।। भावार्थ-हास्य, रति आदि नौ नोकषाय और अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि सोलह कषाय हैं, जो पहले कर्मग्रन्थ में कहे जा चुके हैं। कषाय के सहचारी तथा उत्तेजक होने के कारण हास्य आदि नौ, कहलाते 'नोकषाय' हैं, पर हैं वे कषाय ही। पन्द्रह योगों का विस्तारपूर्वक वर्णन पहले २४वी गाथा में हो चुका है। पच्चीस कषाय, पन्द्रह योग और पूर्व गाथा में कहे हुए पाँच मिथ्यात्व तथा बारह अविरतियाँ, ये सब मिलाकर सत्तावन बन्ध हेतु हुए। । गुणस्थानों में मूल बन्ध-हेतु पहले गुणस्थान के समय मिथ्यात्व आदि चारों हेतु पाये जाते हैं, इसलिये उस समय होनेवाले कर्म-बन्ध में वे चारों कारण हैं। दूसरे आदि चार गुणस्थानों में मिथ्यात्वोदय के सिवाय अन्य सब हेतु रहते हैं; इससे उस समय होनेवाले कर्म-बन्धन में तीन कारण माने जाते हैं। छठे आदि पाँच गुणस्थानों में मिथ्यात्व की तरह अविरति भी नहीं है; इसलिये उस समय होनेवाले कर्म-बन्ध में कषाय और योग, ये दो ही हेतु माने जाते हैं। ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में कषाय भी नहीं होता; इस कारण उस समय होनेवाले बन्ध में सिर्फ योग ही कारण माना जाता है। चौदहवें गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाता है; अतएव उसमें बन्ध का एक भी कारण नहीं रहता।।५२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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