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गुणस्थानाधिकार
१११ एक सौ बीस प्रकृतियों के यथासंभव मूल बन्ध हेतु। चउमिच्छमिच्छअविरइ,-पच्चइया सायसोलपणतीसा। जोग विणु तिपच्चइया,-हारगजिणवज्ज सेसाओ।।५३।। चतुर्मिथ्यामिथ्याऽविरतिप्रत्ययिकाः सातषोडशपञ्चत्रिंशतः। योगान् विना त्रिप्रत्ययिका आहारकजिनवर्जशेषाः।। ५३।।
अर्थ-सातावेदनीय का बन्ध मिथ्यात्व आदि चारों हेतुओं से होता है। नरक-त्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व मात्र से होता है। तिर्यश्चत्रिक आदि पैंतीस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व और अविरति, इन दो हेतुओं से होता है। तीर्थङ्कर और आहारकद्विक को छोड़कर शेष सब (ज्ञानावरणीय आदि पैंसठ) प्रकृतियों का बन्ध, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय, इन तीन हेतुओं से होता है।।५३।।
भावार्थ-बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ एक सौ बीस हैं। इनमें से सातावेदनीय का बन्ध चतुर्हेतुक (चारों हेतुओं से होनेवाला) कहा गया है। सो इस अपेक्षा से कि वह पहल गुणस्थान में मिथ्यात्व से, दूसरे आदि चार-गुणस्थानों में अविरति से, छठे आदि चार गुणस्थानों में कषाय से और ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में योग से होता है। इस तरह तेरह गुणस्थानों में उसके सब मिलाकर चार हेतु होते हैं।
नरक-त्रिक, जाति-चतुष्क, स्थावर-चतुष्क, हुण्डसंस्थान, आठ प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व-हेतुक इसलिये कहा गया है कि ये प्रकृतियाँ सिर्फ पहले गुणस्थान में बाँधी जाती हैं।
तिर्यञ्च-त्रिक, स्त्यानर्द्धि-त्रिक, दुर्भग-त्रिक, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मध्यम संस्थान-चतुष्क, मध्यम संहनन-चतुष्क, नीचगोत्र, उद्योतनाम कर्म, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यत्रिक, अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क और औदारिक-द्विक, इन पैंतीस प्रकृतियों का बन्ध द्वि-हेतुक है; क्योंकि ये प्रकृतियाँ पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व से और दूसरे आदि यथासंभव अगले गुणस्थानों में अविरति से बाँधी जाती हैं।
सातावेदनीय, नरक-त्रिक आदि उक्त सोलह, तिर्यश्च-त्रिक आदि उक्त पैंतीस तथा तीर्थङ्करनामकर्म और आहारक-द्विक, इन पचपन प्रकृतियों को एक
१. देखिये, परिशिष्ट 'प'।
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