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________________ मार्गणास्थान - अधिकार ७९ सत्तागत, उदयमान नहीं; इस कारण इन दो मार्गणाओं में मिथ्यात्वोदय- सहभावी तीन अज्ञान नहीं होते । शेष नौ उपयोग होते हैं। सो इस प्रकार — उक्त दो मार्गणाओं में छद्मस्थ अवस्था में पहले चार ज्ञान तथा तीन दर्शन, ये सात उपयोग और केवलि - अवस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग। देशविरति में, मिथ्यात्व का उदय न होने के कारण तीन अज्ञान नहीं होते और सर्वविरति की अपेक्षा रखने वाले मन: पर्यायज्ञान और केवल - द्विक, ये तीन उपयोग भी नहीं होते; शेष छह होते हैं। छह में अवधि - द्विक का परिगणन इसलिये किया गया है कि श्रावकों को अवधि - उपयोग का वर्णन, शास्त्र में मिलता है। मिश्र-दृष्टि में छह उपयोग वही होते हैं, जो देशविरति में; पर विशेषता इतनी है कि मिश्र - दृष्टि में तीन ज्ञान, मिश्रित होते हैं, शुद्ध नहीं अर्थात् मतिज्ञान, मति-अज्ञान-मिश्रित, श्रुतज्ञान, श्रुत अज्ञान - मिश्रित और अवधिज्ञान, विभङ्गज्ञान-मिश्रित होता है। मिश्रितता इसलिये मानी जाती है कि मिश्रदृष्टिगुणस्थान के समय अर्द्ध-विशुद्ध दर्शनमोहनीय- पुञ्ज का उदय होने के कारण परिणांम कुछ शुद्ध और कुछ अशुद्ध अर्थात् मिश्र होते हैं। शुद्धि की अपेक्षा से मति आदि को ज्ञान और अशुद्धि की अपेक्षा से अज्ञान कहा जाता है। गुणस्थान में अवधिदर्शन का सम्बन्ध विचारने वाले कार्मग्रन्थिक पक्ष दो हैं। पहला पक्ष चौथे आदि नौ गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है, जो २१वीं गा. में निर्दिष्ट है। दूसरा पक्ष, तीसरे गुणस्थान में भी अवधिदर्शन मानता है, जो ४८वीं गाथा में निर्दिष्ट है। इस जगह दूसरे पक्ष को लेकर ही मिश्र - दृष्टि के उपयोग में अवधिदर्शन गिना है | | ३३ ॥ मणनाणचक्खुवज्जा, अणहारि तिन्नि दंसण चउ नाणा | चउनाणसंजमोवस, मवेयगे ओहिदंसे य।। ३४।। मनोज्ञानचक्षुवर्जा अनाहारे त्रीणि दर्शनानि चत्वारि ज्ञानानि । चतुर्ज्ञानसंयमोपशमवेदकेऽवधिदर्शने च।। ३४।। अर्थ-अनाहारक मार्गणा में मन: पर्यायज्ञान और चक्षुर्दर्शन को छोड़कर, शेष दस उपयोग होते हैं। चार ज्ञान, चार संयम, उपशम सम्यक्त्व, वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और अवधिदर्शन, इन ग्यारह मार्गणाओं में चार ज्ञान तथा तीन दर्शन, कुल सात उपयोग होते हैं ||३४|| १. जैसे— श्रीयुत् धनपतिसिंहजी द्वारा मुद्रित उपासकदशा पृ. ७० । २. गोम्मटसार में यही बात मानी हुई है। देखिये, जीवकाण्ड की गाथा ७०४ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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