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चौथा कर्मग्रन्थ
(३) गुणस्थानाधिकार
(१)-गुणस्थानों में जीवस्थान' सब्ब जियठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज्ज सन्निदुगं।
संमे सन्नी दुविहो, सेसेसुं संनिपज्जत्तो।।४५।। सर्वाणि जीवस्थानानि मिथ्यात्वे, सप्त सासादने पञ्चापर्याप्ताः संज्ञिद्विकम्। सम्यक्त्वे संज्ञी द्विविधः, शेषेषु संज्ञिपर्याप्तः।। ४५।।
अर्थ-मिथ्यात्वगुणस्थान में सब जीवस्थान हैं। सासादन में पाँच अपर्याप्त (बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) तथा दो संज्ञी (अपर्याप्त और पर्याप्त) कुल सात जीवस्थान हैं। आविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में दो संज्ञी (अपर्याप्त और पर्याप्त) जीवस्थान हैं। उक्त तीन के अतिरिक्त शेष ग्यारह गुणस्थानों में पर्याप्त संज्ञीजीवस्थान हैं।।४५॥
भावार्थ-एकेन्द्रियादि सब प्रकार के संसारी जीव मिथ्यात्वी पाये जाते हैं; इसलिये पहले गुणस्थान में सब जीवस्थान कहे गये हैं।
दूसरे गुणस्थान में सात जीवस्थान ऊपर कहे गये हैं, उनमें छह अपर्याप्त हैं, जो सभी करण-अपर्याप्त समझने चाहिये; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त जीव, पहले गुणस्थानवाले ही होते हैं।
चौथे गुणस्थान में अपर्याप्त संज्ञी कहे गये हैं, सो भी उक्त कारण से करणअपर्याप्त ही समझने चाहिये।
पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के जीव में ऐसे परिणाम नहीं होते, जिनसे वे पहले, दूसरे और चौथे को छोड़कर शेष ग्यारह गुणस्थानों को पा सकें। इसीलिये इन ग्यारह गुणस्थानों में केवल पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना गया है।।४५।।
गुणस्थान में जीवस्थान का जो विचार- यहाँ है, गोम्मटसार में उससे भिन्न प्रकार का है। उसमें दूसरे, छठे और तेरहवें गुणस्थान में अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी, ये दो जीवस्थान माने हुए हैं। -जीव. गा. ६६८।। गोम्मटसार का यह वर्णन, अपेक्षाकृत है। कर्मकाण्ड की ११३वी गाथा में अपर्याप्त एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि को दूसरे गुणस्थान का अधिकारी मानकर उनको जीवकाण्ड में पहले गुणस्थान मात्र का अधिकारी कहा है; सो द्वितीय गुणस्थानवती अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि जीवों की अल्पता की अपेक्षा से। छठे गुणस्थान के अधिकारी को अपर्याप्त कहा है; सो आहारकमिश्रकाययोग की अपेक्षा से। तेरहवें गुणस्थान अधिकारी सयोगी-केवली को अपर्याप्त कहा है, सो योग को अपूर्णता
की अपेक्षा से। -जीवकाण्ड, गा. १२५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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