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गुणस्थानाधिकार (२)-गुणस्थानों में योग
(दो गाथाओं से) मिच्छादुगअजइ जोगा,-हारदुगुणा अपुव्वपणगे उ।
मणवइ उरलं सविउ,-व्वमीसि सविउव्वदुग देसे।।४६।। मिथ्यात्वद्विकायते योगा, आहारकद्विकोना अपूर्वपञ्चके तु। मनोवच औदारिकं सवैक्रियं मिश्रे सवैक्रियद्विकं देशे।।४६।।
अर्थ-मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आहारकद्विक को छोड़कर तेरह योग हैं। अपूर्वकरण से लेकर पाँच गुणस्थानों में चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये नौ योग हैं। मिश्रगुणस्थान में उक्त नौ तथा एक वैक्रिय, ये दस योग हैं। देशविरतगुणस्थान में उक्त नौ तथा वैक्रिय-द्विक, कुल ग्यारह योग हैं।।४६॥
भावार्थ-पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान में तेरह योग इस प्रकार हैंकार्मणयोग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में; वैक्रियमिश्र और
औदारिकमिश्र, ये दो योग उत्पत्ति के प्रथम समय के अनन्तर अपर्याप्त-अवस्था में और चार मन के, चार वचन के, एक औदारिक तथा एक वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त-अवस्था में। आहारक और आहारकमिश्र, ये दो योग चारित्र-सापेक्ष होने के कारण उक्त तीन गुणस्थानों में नहीं होते।
आठवें से लेकर बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में छह योग नहीं हैं; क्योंकि ये गुणस्थान विग्रहगति और अपर्याप्त-अवस्था में नहीं पाये जाते। अतएव इनमें कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग नहीं होते तथा ये गुणस्थान अप्रमत्तअवस्था-भावी हैं। अतएव इनमें प्रमाद-जन्य लब्धि-प्रयोग न होने के कारण वैक्रिय-द्विक और आहारक-द्विक, ये चार योग भी नहीं होते।
तीसरे गुणस्थान में आहारक-द्विक, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण, इन पाँच के अतिरिक्त शेष दस योग हैं। १. गुणस्थानों में योग-विषयक विचार जैसा यहाँ है, वैसा ही पञ्चसंग्रह दा. १, गा.
१६,१८ तथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. ६६-६९ में है। गोम्मटसार में कुछ विचार-भेद है। उसमें पाँचवें और सातवें गुणस्थान में नौ और छठे गुणस्थान में ग्यारह योग माने हैं।
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