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चौथा कर्मग्रन्थ
आहारक द्विक संयम- सापेक्ष होने के कारण नहीं होता और औदारिकमिश्र आदि तीन योग अपर्याप्त अवस्था भावी होने के कारण नहीं होते; क्योंकि अपर्याप्त-अवस्था में तीसरे गुणस्थान का संभव ही नहीं है।
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यह शङ्का होती है कि अपर्याप्त अवस्था भावी वैक्रियमिश्र काययोग, जो देव और नारकों को होता है, वह तीसरे गुणस्थान में भले ही न माना जाय, पर जिस वैक्रियमिश्र काययोग का सम्भव वैक्रिय लब्धिधारी पर्याप्त मनुष्य-तिर्यञ्चों में है, वह उस गुणस्थान में क्यों न माना जाय ?
इसका समाधान श्रीमलयगिरिसूरि आदि ने यह दिया है कि सम्प्रदाय नष्ट हो जाने से वैक्रियमिश्र काययोग न माने जाने का कारण अज्ञात है; तथापि यह जान पड़ता है कि वैक्रिय लब्धि वाले मनुष्य - तिर्यञ्च तीसरे गुणस्थान के समय वैक्रिय लब्धि का प्रयोग कर वैक्रियशरीर बनाते न होंगे।
देशविरति वाले वैक्रिय लब्धि - सम्पन्न मनुष्य व तिर्यञ्च वैक्रियशरीर बनाते हैं, इसलिये उनके वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग होते हैं।
चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये नौ योग मनुष्य- तिर्यञ्च के लिये साधारण हैं। अतएव पाँचवें गुणस्थान में कुल ग्यारह योग समझने चाहिये। उसमें सर्वविरति न होने के कारण दो आहारक और अपर्याप्त अवस्था न होने के कारण कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो, कुल चार योग नहीं होते॥४६॥
साहारदुग पमत्ते, ते विउवाहारमीस विणु इयरे । कम्मुरलदुगंताइम, मणवयण सयोगि न अजोगी ।। ४७ ।। साहारकद्विकं प्रमत्ते, ते वैक्रियाहारकमिश्रं विनेतरस्मिन् । कार्मणौदारिकद्विकान्तादिममनोवचनं सयोगिनि नायोगिनि । । ४७ ।।
अर्थ-प्रमत्तगुणस्थान में देशविरतिगुणस्थान सम्बन्धी ग्यारह और आहारकद्विक, कुल तेरह योग हैं। अप्रमत्तगुणस्थान में उक्त तेरह में से वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र को छोड़कर शेष ग्यारह योग हैं। सयोगिकेवलिगुणस्थान में कार्मण, औदारिक-द्विक, सत्वमनोयोग, असत्यामृषमनोयोग, सत्यवचनयोग और
१. पञ्चसंग्रह द्वा. १, गा. १७ को टीका ।
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