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गुणस्थानाधिकार
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उन्तालीस हेतुओं में वैक्रियमिश्र काययोग शामिल है, पर वह अपर्याप्त अवस्थाभावी नहीं, किन्तु वैक्रियलब्धि - जन्य, जो पर्याप्त अवस्था में ही होता है । पाँचवें गुणस्थान के समय संकल्प - जन्य त्रस - हिंसा का संभव ही नहीं है। आरम्भ-जन्य त्रस-हिंसा संभव है, पर बहुत कम; इसलिये आरम्भ - जन्य अति अल्प त्रस - -हिंसा. की विवक्षा न करके उन्तालीस हेतुओं में त्रस - अविरति की गणना नहीं की है।
छठा गुणस्थान सर्वविरतिरूप है, इसलिये इसमें शेष ग्यारह अविरतियाँ नहीं होतीं। इसमें प्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क, जिसका उदय पाँचवें गुणस्थान पर्यन्त ही रहता है, नहीं होता। इस तरह पाँचवें गुणस्थान- सम्बन्धी उन्तालीस हेतुओं में से पन्द्रह घटा देने पर शेष चौबीस रहते हैं। ये चौबीस तथा आहारकद्विक, कुल छब्बीस हेतु छठे गुणस्थान में हैं। इस गुणस्थान में चतुर्दश पूर्वधारी मुनि आहारकलब्धि के प्रयोग द्वारा आहारकशरीर रचते हैं, इसी से छब्बीस हेतुओं में आहारक- द्विक परिगणित हैं।
वैक्रियशरीर के आरम्भ और परित्याग के समय वैक्रियमिश्र तथा आहारशरीर के आरम्भ और परित्याग के समय आहारक मिश्रयोग होता है, पर उस प्रमत्त-भाव होने के कारण सातवाँ गुणस्थान नहीं होता। इस कारण इस गुणस्थान के बन्ध-हेतुओं में ये दो योग नहीं गिने गये हैं।
वैक्रियशरीर वाले को वैक्रियकाययोग और आहारकशरीर वाले को आहारक काययोग होता है। ये दो शरीरवाले अधिक से अधिक सातवें गुणस्थान के ही अधिकारी हैं, आगे के गुणस्थानों के नहीं। इस कारण आठवें गुणस्थान के बन्ध-हेतुओं में इन दो योगों को नहीं गिना है ।। ५५-५७ ।।
अछहास सोल बायरि, सुहमे दस वेयसंजलणति विणा । खीणुवसंति अलोभा, सजोगि पुव्वुत्त सगजोगा । । ५८ ।।
अषड्हासाः षोडश बादरे, सूक्ष्मे दश वेदसज्वलनत्रिकाद्विना । क्षीणोपशान्तेऽलोभाः, सयोगानि पूर्वोक्तास्सप्तयोगा । । ५८ । । अर्थ - अनिवृत्ति बादरसंपराय गुणस्थान में हास्य - षट्क के अतिरिक्त पूर्वोक्त बाईस में से शेष सोलह हेतु हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में तीन वेद और तीन संज्वलन (लोभ को छोड़कर) के अतिरिक्त दस हेतु हैं । उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह-गुणस्थानों में संज्वलनलोभ के अतिरिक्त नौ हेतु तथा सयोगिकेवली गुणस्थान में सात हेतु हैं; जो सभी योगरूप हैं ।। ५८ ।।
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