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________________ ११४ चौथा कर्मग्रन्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पूर्वोक्त तैतालीस तथा कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन, कुल छयालीस बन्ध-हेतु हैं। देशविरति गुणस्थान में कार्मण, औदारिकमिश्र, वस-अविरति और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, इन सात के अतिरिक्त शेष उन्तालीस बन्ध हेतु हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ग्यारह अविरतियाँ, प्रत्याख्यानावरण-चतुष्क, इन पन्द्रह को छोड़कर उक्त उन्तालीस में से चौबीस तथा आहारक-द्विक, कुल छब्बीस बन्ध-हेतु हैं। __ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पूर्वोक्त छब्बीस में से मिश्र-द्विक (वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र) के अतिरिक्त शेष चौबीस बन्ध-हेतु हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में वैक्रिय काययोग और आहारककाययोग को छोड़कर बाईस हेतु हैं।।५५-५७|| भावार्थ-५१वीं और ५२वी गाथा में सत्तावन उत्तर बन्ध-हेतु कहे गये हैं। इनमें से आहारक-द्विक के अतिरिक्त शेष पचपन बन्ध-हेतु पहले गुणस्थान में पाये जाते हैं। आहारक-द्विक संयम-सापेक्ष है और इस गुणस्थान में संयम का अभाव है, इसलिये इसमें आहारक-द्विक नहीं होता। दूसरे गुणस्थान में पाँचों मिथ्यात्व नहीं हैं, इसी से उनको छोड़कर शेष पचास हेतु कहे गये हैं। तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धिचतुष्क नहीं है, क्योंकि उसका उदय दूसरे गुणस्थान तक ही है तथा इस गुणस्थान के समय मृत्यु न होने के कारण अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग भी नहीं होते। इस प्रकार तीसरे गुणस्थान में सात बन्ध-हेतु घट जाने से उक्त पचास में से शेष तैतालीस हेतु हैं। चौथा गुणस्थान अपर्याप्त-अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिये इसमें अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रिय मिश्र, इन तीन योगों का संभव है। तीसरे गुणस्थान सम्बन्धी तैतालीस और ये तीन योग, कुल छयालीस बन्ध-हेतु चौथे गुणस्थान में समझने चाहिये। अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क चौथे गुणस्थान तक ही उदयमान रहता है, आगे नहीं। इस कारण वह पाँचवें गुणस्थान में नहीं पाया जाता। पाँचवाँ गुणस्थान देशविरतिरूप होने से इसमें त्रसहिंसारूप त्रस-अविरति नहीं है तथा यह गुणस्थान केवल पर्याप्त-अवस्था-भावी है; इस कारण इसमें अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग भी नहीं होते। इस तरह चौथे गुणस्थानं सम्बन्धी छयालीस हेतुओं में से उक्त सात के अतिरिक्त शेष उन्तालीस बन्ध-हेतु पाँचवें गुणस्थान में हैं। इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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