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चौथा कर्मग्रन्थ
भावार्थ- हास्य-षट्क का उदय आठवें से आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; इसलिये उसे छोड़कर आठवें गुणस्थान के बाईस हेतुओं में से शेष सोलह हेतु नौवें गुणस्थान में समझने चाहिये ।
तीन वेद तथा संज्वलन - क्रोध, मान और माया, इन छह का उदय नौवें गुणस्थान तक ही होता है; इस कारण इन्हें छोड़कर शेष दस हेतु दसवें गुणस्थान में कहे गये हैं।
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संज्वलन लोभ का उदयं दसवें गुणस्थान तक ही रहता है; इसलिये इसके अतिरिक्त उक्त दस में से शेष नौ हेतु ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थान में पाये जाते हैं। नौ हेतु ये हैं ― चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग ।
तेरहवें गुणस्थान में सात हेतु हैं- सत्य और असत्यामृष मनोयोग, सत्य और असत्यामृष वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कर्मण काययोग चौदहवें नहीं है ॥५८॥
गुणस्थान में योग का अभाव है; इसलिये इसमें बन्ध
(६) - गुणस्थानों में बन्ध' । मीसअपुव्वबायरा
अपमत्तता
सत्त, ट्ठ
सत्त।
बंधइ छस्सुहुमो ए - गमुवरिमा बंधगाऽजोगी ।। ५९ ।। अप्रमत्तान्तास्सप्ताष्टान् मिश्रापूर्वबादरास्सप्त ।
बध्नाति षट् च सूक्ष्म एकमुपरितना अबन्धकोऽ योगी । । ५९ । । अर्थ - अप्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त सात या आठ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर - गुणस्थान में सात प्रकृतिओं का, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में छह प्रकृतिओं का और उपशान्तमोह आदि तीन गुणस्थानों में एक प्रकृति का बन्ध होता है। अयोगिकेवली गुणस्थान में बन्ध नहीं होता ॥५९॥
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- हेतु सर्वथा
भावार्थ-तीसरे के अतिरिक्त पहिले से लेकर सातवें तक के छह गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियाँ सात या आठ बाँधी जाती हैं। आयु बाँधने के समय आठ का और उसे न बाँधने के समय सात का बन्ध समझना चाहिये ।
१. यहाँ से ६२वीं गाथा तक का विषय, पञ्चसंग्रह के ५ वें द्वार की २री, ३री और ५वीं गाथा में है।
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