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________________ चौथा कर्मग्रन्थ अविद्या का नाश, यह क्रम जैसा वर्णित है, वही क्रम जैनशास्त्र में मिथ्याज्ञान और सम्यक् ज्ञान के निरूपण द्वारा जगह-जगह वर्णित है । ( ३ ) योगवासिष्ठ के उक्त प्रकरण में ही जो अविद्या विद्या से और विद्या का विचार से नाश बतलाया है, वह जैनशास्त्र में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिक ज्ञान से क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। (४) जैनशास्त्र में मुख्यतया मोह को ही बन्धन – संसार का हेतु माना गया है। योगवासिष्ठ में वही बात रूपान्तर से कही गई है। उसमें जो दृश्य के अस्तित्व को बन्धन का कारण कहा है; उसका तात्पर्य दृश्य के अभिमान या अध्यास से है। (५) जैसे, जैनशास्त्र में ग्रन्थि-भेद का वर्णन है वैसे ही योगवासिष्ठ में भी है। (६) वैदिक ग्रन्थों का यह वर्णन कि ब्रह्म, माया के संसर्ग से जीवत्व धारण करता है और मन के संसर्ग से संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि रचता है; तथा स्थावर - जङ्गमात्मक जगत् का कल्प के अन्त में नाश होता है५, इत्यादि बातों की संगति जैनशास्त्र के अनुसार इस प्रकार xxiv १. जन्मपर्वाहिनीरन्ध्रा, विनाशच्छिद्रचचुरा । भोगाभोगरसापूर्णा, विचारैकघुणक्षता ॥ ११ ॥ - सर्ग ८ | २. मिथः स्वान्ते तयोरन्तश्छायातपनयोरिव। अविद्यायां विलीनायां क्षीणे द्वे एव कल्पने ॥ २३ ॥ एते राघव ! लीयेते, अवाप्यं परिशिष्यतेः अविद्यासंक्षयात् क्षीणो, विद्यापक्षोऽपि राघव ! ॥ २४ ॥ - सर्ग ९ | ३. अविद्या संसृतिर्बन्धो, माया मोहो महत्तमः । ५. कल्पितानीति नामानि यस्याः सकलवेदिभिः ॥ २० ॥ द्रष्टुर्द्दश्यस्य सत्ताऽङ्ग, -बन्ध इत्यभिधीयते । द्रष्टा दृश्यबलाद्द्बद्धो, दृश्याऽभावे विमुच्यते ॥ २२ ॥ ( उत्पात्त - प्रकरण, सर्ग १ ) तस्माच्चित्तविकल्पस्थ, -पिशाचो बालकं यथा । विनिहन्त्येवमेषान्त, - र्द्रष्टारं दृश्यरूपिका ||३८|| ( वही सर्ग ३ ) ४. ज्ञप्तिर्हि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता । मृगतृष्णाम्बुबुद्ध्यादिशान्तिमात्रात्मकस्त्वसौ ॥ २३ ॥' (वही, सर्ग ११८ ) तत्स्वयं स्वैरमेवाऽऽशु, संकल्पयति नित्यशः। तेनेत्थमिन्द्रजालश्रीर्विततेयं वितन्यते ॥ १६ ॥ यदिदं दृश्यते सर्वे, जगत्स्थावरजङ्गमम्। तत्सुषुप्ताविव स्वप्नः, कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥ १० ॥ (उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग १ ) स तथाभूत एवाऽऽत्मा, स्वयमन्य इवोल्लसन् । जीवतामुपयातीव, भाविनाम्ना कदर्थिताम्॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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