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________________ परिशिष्ट १६५ के दलिकों का सर्वघाती रस नष्ट हो जाता है, तब वे ही एक-स्थान रसवाले और द्वि-स्थान अतिमन्द रसवाले दलिक ‘सम्यक्त्वमोहनीय' कहलाते हैं। जैसेकाँच आदि पारदर्शक वस्तुएँ नेत्र के दर्शन-कार्य में रुकावट नहीं डालती, वैसे ही मिथ्यात्व मोहनीय के शुद्ध दलिकों का विपाकोदय सम्यक्त्व-परिणाम के आविर्भाव में प्रतिबन्ध नहीं करता। अब रहा मिथ्यात्व का प्रदेशोदय, सो वह भी, सम्यक्त्व-परिणाम का प्रतिबन्धक नहीं होता; क्योंकि नीरस दलिकों का ही प्रदेशोदय होता है। जो दलिक, मन्द रसवाले हैं, उनका विपाकोदय भी, जब गुण का घात नहीं करता, तब नीरस दलिकों के प्रदेशोदय से गुण के घात होने की सम्भावना ही नहीं की जा सकती। देखिये, पञ्चसंग्रह-द्वार १, १५वीं गाथा की टीका में ग्यारहवें गुणस्थान की व्याख्या। (५) क्षयोपशम-जन्य पर्याय 'क्षायोपशमिक' और उपशम-जन्य पर्याय 'औपशमिक' कहलाता है। इसलिये किसी भी क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव का यथार्थ ज्ञान करने के लिये पहले क्षयोपशम और उपशम का ही स्वरूप जान लेना आवश्यक है। अतः इनका स्वरूप शास्त्रीय प्रक्रिया के अनुसार लिखा जाता है_ (क) क्षयोपशम शब्द में दो पद है-क्षय तथा उपशम। 'क्षयोपशम' शब्द का मतलब, कर्म के क्षय और उपशम दोनों से है। क्षय का मतलब आत्मा से कर्म का विशिष्ट सम्बन्ध छूट ज़ाना और उपशम का मतलब कर्म का अपने स्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न रह कर भी उस पर असर न डालना है। यह तो हआ सामान्य अर्थ; पर उसका पारिभाषिक अर्थ कुछ अधिक है। बन्धावलिका पूर्ण हो जाने पर किसी विवक्षित कर्म का जब क्षयोपशम शुरू होता है, तब विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका-पर्यन्त के दलिक, जिन्हें उदयावलिकाप्राप्त या उदीर्ण-दलिक कहते हैं, उनका तो प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय (अभाव) होता रहता है और जो दलिक, विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका तक में उदय पाने योग्य नहीं है जिन्हें उदयावलिका बहिर्भूत या अनुदीर्ण दलिक कहते हैं-उनका उपशम (विपाकोदय की योग्यता का अभाव या तीव्र रस से मन्द रस में परिणमन) हो जाता है, जिससे वे दलिक, अपनी उदयावलिका प्राप्त होने पर, प्रदेशोदय या मन्द विपाकोदय द्वारा क्षीण हो जाते हैं अर्थात् आत्मा पर अपना फल प्रकट नहीं कर सकते या कम प्रकट करते हैं। इस प्रकार आवलिका पर्यन्त के उदय-प्राप्त कर्मदलिकों का प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय और आवलिका के बाद के उदय पाने योग्य कर्मदलिकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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