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________________ १६४ चौथा कर्मग्रन्थ जो बाह्य निमित्त हैं, वे सहकारीमात्र हैं। उनके द्वारा कभी-कभी भव्यत्व का परिपाक होने में मदद मिलती है, इसी से व्यवहार में वे सम्यक्त्व के कारण माने गये हैं और उनके आलम्बन की आवश्यकता दिखायी जाती है । परन्तु निश्चय-दृष्टि से तथाविध- भव्यत्व के विपाक को ही सम्यक्त्व का अव्यभिचारी (निश्चित) कारण मानना चाहिये। इससे शास्त्र - श्रवण, प्रतिमा पूजन आदि बाह्य क्रियाओं की अनैकान्तिकता, जो अधिकारी भेद पर अवलम्बित है, उसका खुलासा हो जाता है। यही भाव, भगवान् उमास्वाति ने 'तन्निसर्गादधिगमाद्वा'तत्त्वार्थ- अ. १, सूत्र ३ से प्रकट किया है । और, यही बात पञ्चसंग्रह - द्वार १, गा. ८ की मलयगिरि - टीका में भी है। ― (२) सम्यक्त्व गुण, प्रकट होने के आभ्यन्तर कारणों की जो विविधता है, वही क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार है - अनन्तानुबन्धि चतुष्क और दर्शनमोहनीय - त्रिक, इन सात प्रकृतियों क्षयोपशम, क्षायोपशमिक - सम्यक्त्व का; उपशम, औपशमिक- सम्यक्त्व का और क्षय क्षायिकसम्यक्त्व का कारण है तथा सम्यक्त्व से गिरा कर मिथ्यात्व की ओर झुकने वाला अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय, सासादन सम्यक्त्व का कारण और मिश्रमोहनीय का उदय, मिश्र सम्यक्त्व का कारण है। औपशमिक सम्यक्त्व में काललब्धि आदि अन्य क्या २ निमित्त अपेक्षित हैं और वह किस-किस गति में किन - २ कारणों से होता है, इसका विशेष वर्णन तथा क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का वर्णन क्रमश:तत्त्वार्थ अ. २, सू. ३ के प्रथम और द्वितीय राजवार्तिक में तथा सू. ४ और ५ के ७ वें राजवार्तिक में है। (३) – औपशमिक सम्यक्त्व के समय, दर्शनमोहनीय का किसी प्रकार का उदय नहीं होता; पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के समय, सम्यक्त्व मोहनीय विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय का प्रदेशोदय होता है। इसी भिन्नता के कारण शास्त्र में औपशमिक सम्यक्त्व को, 'भावसम्यक्त्व' और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को, 'द्रव्य सम्यक्त्व' कहा है। इन दोनों सम्यक्त्वों से क्षायिकसम्यक्त्व विशिष्ट है; क्योंकि वह स्थायी है और ये दोनों अस्थायी हैं। (४) यह शङ्का होती है कि मोहनीयकर्म घातिकर्म है। वह सम्यक्त्व और चारित्रपर्याय का घात करता है, इसलिये सम्यक्त्वमोहनीय के विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय के प्रदेशोदय के समय, सम्यक्त्व - परिणाम व्यक्त कैसे हो सकता है? इसका समाधान यह है कि सम्यक्त्वमोहनीय, मोहनीयकर्म है सही, पर उसके दलिक विशुद्ध होते हैं; क्योंकि शुद्ध अध्यवसाय से जब मिथ्यात्वमोहनीय कर्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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