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परिशिष्ट
परिशिष्ट 'झ'
पृष्ठ ६४, पङ्कि ८ के 'सम्यक्त्व' शब्द पर
इसका स्वरूप, विशेष प्रकार से जानने के लिये निम्नलिखित विचार करना बहुत उपयोगी है—
(१) सम्यक्त्व सहेतुक है या निर्हेतुक?
(२) क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार क्या है ?
(३) औपशमिक और क्षायोपशमिक- सम्यक्त्व आपस में अन्तर तथा क्षायिक सम्यक्त्व की विशेषता ।
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(४) शङ्का-समाधान, विपाकोदय और प्रदेशोदय का स्वरूप ।
(५) क्षयोपशम और उपशम की व्याख्या तथा खुलासावार विचार |
(१) सम्यक्त्व-परिणाम सहेतुक है या निर्हेतुक? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसको निर्हेतुक नहीं मान सकते; क्योंकि जो वस्तु निर्हेतुक हो, वह सब काल में, सब जगह, एक-सी होनी चाहिये अथवा उसका अभाव होना चाहिये। सम्यक्त्व - परिणाम, न तो सबमें समान है और न उसका अभाव है। इसलिये उसे सहेतुक मानना ही चाहिये। सहेतुक मान लेने पर यह प्रश्न होता है कि उसका हेतु क्या है; प्रवचन- श्रवण, भगवत्पूजन आदि जो-जो बाह्य निमित्त माने जाते हैं, वे तो सम्यक्त्व के नियत कारण हो ही नहीं सकते; क्योंकि इन बाह्य निमित्तों के होते हुए भी अभव्यों की तरह अनेक भव्यों को सम्यक्त्व - प्राप्ति नहीं होती। परन्तु इसका उत्तर इतना ही है कि सम्यक्त्व - परिणाम प्रकट होने में नियत कारण जीव का तथाविध भव्यत्व - नामक अनादि पारिणामिक - स्वभाव - विशेष ही है। जब इस पारिणामिक भव्यत्व का परिपाक होता है, तभी सम्यक्त्व - लाभ होता है। भव्यत्व परिणाम, साध्य रोग के समान है। कोई साध्य रोग, स्वयमेव ( बाह्य उपाय के बिना ही) शान्त हो जाता है। किसी साध्य रोग के शान्त होने में वैद्य का उपचार भी दरकार है और कोई साध्य रोग ऐसा भी होता है, जो बहुत दिनों के बाद मिटता है। भव्यत्व-स्वभाव, ऐसा ही है। अनेक जीवों का भव्यत्व, बाह्य निमित्त के बिना ही परिपाक प्राप्त करता है। ऐसे भी जीव हैं, जिनके भव्यत्व - स्वभाव का परिपाक होने में शास्त्र - श्रवण आदि बाह्य निमित्तों की आवश्यकता पड़ती है। और, अनेक जीवों का भव्यत्व परिणाम दीर्घ-काल व्यतीत हो चुकने पर, स्वयं ही परिपाक प्राप्त करता है। शास्त्र श्रवण, अर्हत्पूजन आदि
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