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________________ १३४ चौथा कर्मग्रन्थ की पद्मवर वेदिका पर्यन्त अर्थात् साढ़े आठ योजन प्रमाण समझने चाहिये। इन्हें शिखा पर्यन्त सरसों से पूर्ण करने का विधान है || ७३ ॥ भावार्थ-शास्त्र में सत् और असत् दो प्रकार की कल्पना तो है। जो कार्य में परिणत की जा सके, वह 'सत्कल्पना', और जो किसी वस्तु का स्वरूप समझने में उपयोगीमात्र, पर कार्य में परिणत न की जा सके, वह 'असत्कल्पना' है । पल्यों का विचार असत्कल्पना है; इसका प्रयोजन उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप समझाना मात्र है। शास्त्र में पल्य चार कहे गये हैं- ( १ ) अनवस्थित, (२) शलाका, (३) प्रतिशलाका और (४) महाशलाका । इनकी लम्बाई-चौड़ाई जम्बूद्वीप के बराबरएक-एक लाख योजन की, गहराई एक हजार योजन की और ऊँचाई पद्मवर वेदिका-प्रमाण अर्थात् साढे आठ योजन की कही हुई है । पल्य की गहराई तथा ऊँचाई मेरु की समतल भूमि से समझना चाहिये। सारांश, ये कल्पित पल्य तल से शिखा तक में १०० = १ / २ योजन लिये जाते हैं। अनवस्थित पल्य अनेक बनते हैं। इन सबकी लम्बाई-चौड़ाई एक सी नहीं है। पहला अनवस्थित (मूलानवस्थित) की लम्बाई-चौड़ाई लाख योजन की और आगे के सब अनवस्थित (उत्तरानवस्थित) की लम्बाई-चौड़ाई अधिकाधिक है। जैसे – जम्बूद्वीपप्रमाण मूलानवस्थित पल्य को सरसों से भर देना और जम्बूद्वीप से लेकर आगे के हर एक द्वीप में तथा समुद्र में उन सरसों में से एक-एक को डालते जाना। इस प्रकार डालते डालते जिस द्वीप में या जिस समुद्र में मूलानवस्थित पल्य खाली हो जाय, जम्बूद्वीप ( मूलस्थान) से उस द्वीप या उस समुद्र तक की लम्बाई-चौड़ाई वाला नया पल्य बना लिया जाय। यही पहला उत्तरावस्थित है। इस पल्य में भी ठाँस कर सरसों भरना और इन सरसों में से एक-एक को आगे के प्रत्येक द्वीप में तथा समुद्र में डालते जाना। डालते डालते जिस द्वीप में या जिस समुद्र में इस पहले उत्तरानवस्थित पल्य के सब सर्षप समाप्त हो जायें, या मूलस्थान ( जम्बूद्वीप) से उस सर्षप - समाप्ति - कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त लम्बा-चौड़ा पल्य फिर से बना लेना, यह दूसरा उत्तरानवस्थितपल्य है। इसे भी सर्षपों से भर देना और आगे के प्रत्येक द्वीप में तथा समुद्र में एक - एक सर्षप को डालते जाना। ऐसा करने से दूसरे उत्तरा नवस्थितपल्य के सर्षपों की समाप्ति जिस द्वीप में या जिस समुद्र में हो जाय, मूल स्थान से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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