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________________ गुणस्थानाधिकार १३५ उस सर्षप-समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त विस्तृत पल्य फिर से बनाना यह तीसरा उत्तरानवस्थित पल्य है। इसको भी सर्षपों से भरना तथा आगे के द्वीप, समुद्र में एक-एक सर्षप डालकर खाली करना। फिर मूल स्थान से सर्षप - समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त विस्तृत पल्य बना लेना और उसे भी सर्षपों से भरना तथा उक्त विधि के अनुसार खाली करना। इस प्रकार जितने उत्तरानवस्थित पल्य बनाये जाते हैं, वे सभी प्रमाण में पूर्व - पूर्व की अपेक्षा बड़ेबड़े ही होते जाते हैं। परिमाण की अनिश्चितता के कारण इन पल्यों का नाम 'अनवस्थित' रक्खा गया है। यह ध्यान में रखना चाहिये कि अनवस्थित पल्य लम्बाई-चौड़ाई में अनियत होने पर भी ऊँचाई में नियत ही अर्थात् १००८=१/ २ योजन मान लिये जाते हैं। अनवस्थित पल्यों को कहाँ तक बनाना? इसका खुलासा आगे की गाथाओं से हो जायगा । प्रत्येक अनवस्थित पल्य के खाली हो जाने पर एक-एक सर्षप शलाकापल्य में डाल दिया जाता है। अर्थात् शलाका पल्य में डाले गये सर्षपों की संख्या से यही जाना जाता है कि इतनी दफ़ा उत्तरानवस्थितपल्य खाली हुए । हर एक शलाकापल्य के खाली होने के समय एक-एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डाला जाता है। प्रतिशलाका पल्य के सर्षपों की संख्या से यह विदित होता है कि इतनी बार शलाका पल्य भरा गया और खाली हुआ। प्रतिशलाका पल्य के एक-एक बार भर जाने और खाली हो जाने पर एक - एक सर्षप महाशलाका पल्य में डाल दिया जाता है, जिससे यह जाना जा सकता है कितनी बार प्रतिशलाका पल्य भरा गया और खाली किया गया । । ७३ ॥ पल्यों के भरने आदि की विधि तादीवुदहिसु इक्कि, क्कसरिसवं खिबि य निट्ठिए पढमे । पढमं व तदन्तं चिय, पुण भरिए तंमि तह खीणे । । ७४ । । खिप्पड़ सलागपल्ले, -गु सरिसवो इय सलागखवणेणं । पुन्नो बीयो य तओ, पुव्विं पि व तंमि उद्धरिए । । ७५ ।। खीणे सलाग तइए, एवं पढमेहिं बीययं भरसु । तेहिं तइयं तेहिय, तुरियं जा किर फुडा चउरो ।। ७६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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