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________________ चौथा कर्मग्रन्थ तावद्वीपोदधिष्वेकैकसर्षपं क्षिप्त्वा निष्ठिते प्रथमे। प्रथममिव तदन्तमेव पुन ते तस्मिन्तथा क्षीणे।।७४।। क्षिप्यते शलाकापल्ये एकस्सर्षप इति शलाकाक्षपणेन। पूर्णो द्वितीयश्च ततः पूर्वमिव तस्मिन्नुघृते।।७५।। क्षीणे शलाका तृतीये एवं प्रथमैर्द्वितीयं भर। तैस्तृतीयं तैश्च तुर्ये यावत्किल स्फुटाश्चत्वारः।।७६।। अर्थ-पूर्ण अनवस्थित पल्य में से एक-एक सर्षप द्वीप-समुद्र में डालना चाहिये, जिस द्वीप या समुद्र में सर्षप समाप्त हो जाय, उस द्वीप या समुद्र पर्यन्त विस्तीर्ण नया अनवस्थितपल्य बनाकर उसे सर्षपों से भरना चाहिये। इनमें से एक-एक सर्षप द्वीप-समुद्र में डालने पर जब अनवस्थित पल्य खाली हो जाय, तब शलाका पल्य में एक सर्षप डालना चाहिये। इस तरह एकएक सर्षप डालने से जब दूसरा शलाका पल्य भर जाय, तब उसे पूर्व की तरह उठाना चाहिये। उठाकर उसमें से एक-एक सर्षप निकालकर उसे खाली करना और प्रतिशलाका में एक सर्षप डालना चाहिये। इस प्रकार अनवस्थित से शलाका को और अनवस्थित-शलाका दोनों से तीसरे (प्रतिशलाका) को और पहले तीन पल्य से चौथे (महाशलाका) पल्य को भर देना चाहिये। इस तरह चारों पल्यों को परिपूर्ण भर देना चाहिये।।७४-७६।। भावार्थ-सबसे पहले लक्ष-योजन-प्रमाण मूल अनवस्थित पल्य को सर्षपों से भरना और उन सर्षपों में से एक-एक सर्षप को जम्बूद्वीप आदि प्रत्येक द्वीप तथा समुद्र में डालना चाहिये, इस रीति से एक-एक सर्षप डालने से जिस द्वीप या समुद्र में मूल अनवस्थितपल्य बिलकुल खाली हो जाय, जम्बूद्वीप से (मूल स्थान से) उस सर्षप-समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र तक लम्बा-चौड़ा. नया पल्य बना लेना चाहिये, जो ऊँचाई में पहले पल्य के बराबर ही हो। फिर इस उत्तरानवस्थित पल्य को सर्षपों से भर देना और एक-एक सर्षप को आगे के द्वीप-समुद्र में डालना चाहिये। इस प्रकार एक-एक सर्षप निकालने से जब यह पल्य भी खाली हो जाय, तब इस प्रथम उत्तरानवस्थित पल्य के खाली हो जाने का सूचक एक सर्षप शलाका नाम के पल्य में डालना। जिस द्वीप में या जिस समुद्र में प्रथम उत्तरानवस्थित खाली हो जाय, मूल स्थान (जम्बूद्वीप से) उस द्वीप या समुद्र तक विस्तीर्ण अनवस्थित पल्य फिर बनाना तथा उसे सर्षपों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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