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जीवस्थान- अधिकार
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और चार कर्म के हैं तथा उदीरणा स्थान सात, आठ, छः, पाँच और दो कर्म का है ॥८॥
भावार्थ-जिन प्रकृतियों का बन्ध एक साथ (युगपत् ) हो, उनके समुदाय को 'बन्धस्थान' कहते हैं । इसी तरह जिन प्रकृतियों की सत्ता एक साथ पायी जाय, उनके समुदाय को 'सत्तास्थान', जिन प्रकृतियों का उदय एक साथ पाया जाय, उनके समुदाय को 'उदयस्थान' और जिन प्रकृतियों की उदीरणा एक साथ पायी जाय, उनके समुदाय को 'उदीरणास्थान' कहते हैं।
५ बन्धस्थान
उपर्युक्त चार बन्धस्थानों में से सात कर्म का बन्धस्थान, उस समय पाया जाता है जिस समय कि आयु का बन्ध नहीं होता। एक बार आयु का बन्ध हो जाने के बाद दूसरी बार उसका बन्ध होने में जघन्य काल, अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण और उत्कृष्ट काल, अन्तर्मुहूर्त - कम १ / ३ करोड़ पूर्ववर्ष तथा छः मास कम तेतीस सागरोपम - प्रमाण चला जाता है । अतएव सात कर्म के बन्धस्थान की स्थिति भी उतनी ही अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त - प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त कम १ / ३ करोड़ पूर्व वर्ष तथा छह मास कम तेतीस सागरोपम- प्रमाण समझनी चाहिये।
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आठ कर्म का बन्धस्थान, आयु-बन्ध के समय पाया जाता है। आयु-बन्ध, जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक होता है, इसलिये आठ के बन्धस्थान की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण है।
छः कर्म का बन्धस्थान दसवें ही गुणस्थान में पाया जाता है; क्योंकि उसमें आयु और मोहनीय, दो कर्म का बन्ध नहीं होता। इस बन्धस्थान की जघन्य
१. नौ समय प्रमाण, इस तरह एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते अन्त में एक समय कम मुहूर्त - प्रमाण, यह सब प्रकार का काल 'अन्तर्मुहूर्त' कहलाता है । जघन्य अन्तर्मुहूर्त नव समय का, उत्कृष्ट अर्मुहूर्त एक समय कम मुहूर्त का और मध्यम अन्तर्मुहूर्त दस समय, ग्यारह समय आदि बीच के सब प्रकार के काल का समझना चाहिये। दो घड़ी को - अड़तालीस मिनट को -- मुहूर्त कहते हैं।
२. दस कोटाकोटि पल्योपम का एक 'सागरोपम' और असंख्य वर्षों का एक 'पल्योपम' होता है। -- तत्त्वार्थ अ. ४, सू. १५ का भाष्य ।
३. जब करोड़ पूर्व वर्ष की आयुवाला कोई मनुष्य अपनी आयु के तीसरे भाग में अनुत्तर विमान की तेतीस सागरोपम-प्रमाण आयु बाँधता है, तब अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त आयुबन्ध करके फिर वह देव की आयु के छह महीने शेष रहने पर ही आयु बाँध सकता है, इस अपेक्षा से आयु-बन्ध का उत्कृष्ट अन्तर समझना चाहिए ।
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