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चौथा कर्मग्रन्थ
कर्म, उदय प्राप्त है, उसकी उदीरणा होती है, दूसरे की नहीं। और उदय प्राप्त कर्म भी आवलिकामात्र शेष रह जाता है, तब से उसकी उदीरणा रुक जाती है।
उक्त तेरह जीवस्थानों में जो अपर्याप्त जीवस्थान हैं, वे सभी लब्धि अपर्याप्त समझने चाहिये; क्योंकि उन्हीं में सात या आठ कर्म की उदीरणा घट सकती है। वे अपर्याप्त अवस्था ही में मर जाते हैं, इसलिये उनमें आवलिकामात्र आयु बाकी रहने पर सात कर्म की और इसके पहले आठ कर्म की उदीरणा होती है। परन्तु करणापर्याप्तों के अपर्याप्त अवस्था में मरने का नियम नहीं है । वे यदि लब्धिपर्याप्त हुये तो पर्याप्त अवस्था ही में मरते हैं। इसलिये उनमें अपर्याप्त-अवस्था में आवलिकामात्र आयु शेष रहने का और सात कर्म की उदीरणा का संभव नहीं है।
३-४ सत्ता और उदय
आठ कर्मों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक होती है और आठ कर्म का उदय दसवें गुणस्थान तक बना रहता है; परन्तु पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त सब प्रकार के जीवों में अधिक से अधिक पहला, दूसरा और चौथा, इन तीन गुणस्थानों का संभव है; इसलिये उक्त तेरह प्रकार के जीवों में सत्ता और उदय आठ कर्मों को माना गया है ||७||
सत्तट्ठछेगबंधा,
संतुदया
सत्तट्ठछपंचदुगं, उदीरणा
सप्ताष्टषडेकबन्धा,
सदुदयौ
सत्तअट्ठचत्तारि । संनिपज्जत्ते । । ८ ।। सप्ताष्टचत्वारि ।
सप्ताष्टषट्पञ्चद्विकमुदीरणा
संज्ञि - पर्याप्ते ।।८।।
आठ
अर्थ - पर्याप्त संज्ञी में सात कर्म का, आठ कर्म का, छः कर्म का और एक कर्म का, ये चार बन्ध स्थान हैं, सत्ता स्थान और उदय स्थान सात, १. 'उदयावलियाबहिरिल्ल ठिईहिंतो कसायसहिया सहिएणं दलियमाकड्डिय उदयपत्तदलियेण समं अणुभवणमुदीरणा । '
जोगकरणेणं
- कर्मप्रकृति- चूणि ।
अर्थात् उदय-आवलिका से बाहर की स्थितिवाले दलिकों को कषायसहित या कषाय रहित योग द्वारा खींचकर - उस स्थिति से उन्हें छुड़ाकर - उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना 'उदीरणा' कहलाती है।
इस कथन का तात्पर्य इतना ही है कि उदयावलिका के अन्तर्गत दलिकों की उदीरणा नहीं होती। अतएव कर्म की स्थिति आवलिकामात्र बाकी रहने के समय उसकी उदीरणा का रुक जाना नियमानुकूल है।
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