SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट १५१ जो कि मन से नीचे की श्रेणि की मानी जाती है, उनके होने में कोई बाधा नहीं । इन्द्रिय के सम्बन्ध में प्राचीन काल में विशेष - दशीं महात्माओं ने बहुत विचार किया है, जो अनेक जैन-ग्रन्थों में उपलब्ध है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं- १. द्रव्यरूप और २. भावरूप। द्रव्येन्द्रिय, पुद्गल - जन्य होने से जड़रूप है; पर भावेन्द्रिय, ज्ञानरूप है, क्योंकि वह चेतनाशक्ति पर्याय है। (१) द्रव्येन्द्रिय, अङ्गोपाङ्ग और निर्माण नामकर्म के उदय-जन्य है। इसके दो भेद हैं (क) निर्वृत्ति और (ख) उपकरण । (क) इन्द्रिय के आकार का नाम 'निर्वृत्ति' है। निर्वृत्ति के भी (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर, ये दो भेद हैं। (१) इन्द्रिय के बाह्य आकार को 'बाह्यनिवृत्ति' कहते हैं और (२) भीतरी आकार को 'आभ्यन्तरनिर्वृत्ति' । बाह्य भाग तलवार के समान है और आभ्यन्तर भाग तलवार की तेजधार के समान, जो अत्यन्त स्वच्छ परमाणुओं का बना हुआ होता है। आभ्यन्तरनिर्वृत्ति का यह पुद्गल स्वरूप प्रज्ञापनासूत्र - इन्द्रियपद की टीका पृ. २९४ / १ के अनुसार है। आचाराङ्गवृत्ति पृ. १०४ में उसका स्वरूप चेतनामय बतलाया है। आकार के सम्बन्ध में यह बात जाननी चाहिये कि त्वचा की आकृति अनेक प्रकार की होती है, पर उसके बाह्य और आभ्यन्तर आकार में जुदाई नहीं है। किसी प्राणी की त्वचा का जैसा बाह्य आकार होता है, वैसा ही आभ्यन्तर आकार होता है । परन्तु अन्य इन्द्रियों के विषय में ऐसा नहीं है - त्वचा को छोड़ अन्य सब इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार, बाह्य आकार से नहीं मिलते। सब जाति के प्राणियों की सजातीय इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार, एक तरह के माने हुये हैं। जैसे - कान का आभ्यन्तर आकार, कदम्ब - पुष्प - जैसा, आँख का मसूर के दानाजैसा, नाक का अतिमुक्तक के फूल - जैसा और जीभ का छुरा जैसा है। किन्तु बाह्य आकार, सब जाति में भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ – मनुष्य, हाथी, घोड़ा, बैल, बिल्ली, चूहा आदि के कान, आँख, नाक, जीभ को देखिये । (ख) आभ्यन्तरनिर्वृत्ति की विषय- ग्रहण - शक्ति को 'उपकरणेन्द्रिय' कहते हैं। (२) भावेन्द्रिय दो प्रकार की है- १. लब्धिरूप और २. उपयोगरूप। (१) मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम को — चेतना - शक्ति की योग्यता- विशेष को— 'लब्धिरूप भावेन्द्रिय' कहते हैं । (२) इस लब्धिरूप भावेन्द्रिय के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy