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चौथा कर्मग्रन्थ
__जीवों के आन्तरिक भावों की मलिनता तथा पवित्रता के तर-तम-भाव का सूचक, लेश्या का विचार, जैसा जैनशास्त्र में है; कुछ उसी के समान, छः जातियों का विभाग, मङ्खलीगोशालपुत्र के मत में है, जो कर्म की शुद्धि-अशुद्धि को लेकर कृष्ण-नील आदि छ: वर्गों के आधार पर किया गया है। इसका वर्णन, 'दीघनिकाय-सामञफलसुत्त' में है। _ 'महाभारत' के १२,२८६ में भी छ: 'जीव-वर्ण' दिये हैं, जो उक्त विचार से कुछ मिलते-जुलते हैं।
'पातञ्जलयोगदर्शन' के ४,७ में भी ऐसी कल्पना है; क्योंकि उसमें कर्म के चार विभाग करके जीवों के भावों की शुद्धि-अशुद्धि का पृथक्करण किया है। इसके लिये देखिये, दीघनिकाय का मराठी-भाषान्तर, पृ. ५६।
परिशिष्ट 'ख' पृ. १०, पंक्ति १८ के ‘पञ्चेन्द्रिय' शब्द पर
जीव के एकेन्द्रिय आदि पाँच भेद किये गये हैं, जो द्रव्येन्द्रिय के आधार पर है; क्योंकि भावेन्द्रियाँ तो सभी संसारी जीवों में पाँचों ही होती हैं। यथा'अहवा पडुच्च लद्धिं,-दियं पि पंचेंदिया सव्वे।। २९९९।।'
–विशेषावश्यक। अर्थात् लब्धीन्द्रिय की अपेक्षा से सभी संसारी जीव पञ्चेन्द्रिय हैं। 'पंचेदिउव्व बउलो, नरो व्व सव्व-विसओवलंभाओ।' इत्यादि।
-विशेषावश्यक, गा. ३००१। अर्थात् बस विषय का ज्ञान होने की योग्यता के कारण बहुल-वृक्ष मनुष्य की तरह पाँच इन्द्रियों वाला है।
यह ठीक है कि द्वीन्द्रिय आदि की भावेन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि की भावेन्द्रिय से उत्तरोत्तर व्यक्त-व्यक्ततर ही होती है। पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिनको द्रव्येन्द्रियाँ, पाँच पूरी नहीं हैं, उन्हें भी भावेन्द्रियाँ तो सभी होती ही हैं। यह बात आधुनिक विज्ञान से भी प्रमाणित है। डॉ. जगदीशचन्द्र बसु की खोज ने वनस्पति में स्मरणशक्ति का अस्तित्व सिद्ध किया है। स्मरण, जो कि मानसशक्ति का कार्य है, वह यदि एकेन्द्रिय में पाया जाता है तो फिर उसमें अन्य इन्द्रियाँ,
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