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परिशिष्ट
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इन दो दृष्टान्तों से लेश्याओं का स्वरूप स्पष्ट जाना जाता है। प्रत्येक दृष्टान्त के छ:-छ: पुरुषों से पूर्व-पूर्व पुरुष के परिणामों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर पुरुष के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभतम पाये जाते हैं-उत्तर-उत्तर पुरुष के परिणामों में संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता पाई जाती है। प्रथम पुरुष के परिणाम को 'कृष्णलेश्या', दूसरे के परिणाम को 'नीललेश्या', इस प्रकार क्रम से छठे पुरुष के परिणाम को 'शुक्लेश्या' समझना चाहिये। आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति पृ. २४५/१ तथा लोक.प्र., स. ३, श्लो. ३६३-३८०। ___लेश्या-द्रव्य के स्वरूपसम्बन्धी उक्त तीनों मत के अनुसार तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त भावलेश्या का सद्भाव चाहिये। यह सिद्धान्त गोम्मटसार-जीवकाण्ड को भी मान्य है, क्योंकि उसमें योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा है। यथा
'अयदोत्ति छलेस्साओ, सुहतियलेस्सा दु देसविरदतिये। तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु।।५३१।।'
सर्वार्थसिद्धि में और गोम्मटसार के स्थानान्तर में कषायोदय-अनुरञ्जितयोगप्रवृत्ति को लेश्या' कहा है। यद्यपि इस कथन से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या होना पाया जाता है, पर यह कथन अपेक्षा-कृत होने के कारण पूर्व-कथन के विरुद्ध नहीं है। पूर्व कथन में केवल प्रकृति-प्रदेशबन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्यारूप से विवक्षित हैं और इस कथन में स्थिति-अनुभाग आदि चारों बन्धों के निमित्तभूत परिणाम लेश्यारूप से विवक्षित हैं, केवल प्रकृति-प्रदेश-बन्ध के निमित्त भूत परिणाम नहीं। यथा
'भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योग-प्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते।'
'जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होइ। तत्तो दोण्णं कज्जं, बंधचउक्कं समुट्ठि।।४८९।।'
-जीवकाण्ड। द्रव्यलेश्या के वर्ण-गन्ध आदि का विचार तथा भावलेश्या के लक्षण आदि का विचार उत्तराध्ययन, अ. ३४ में है। इसके लिये प्रज्ञापना-लेश्यापद, आवश्यक, लोकप्रकाश आदि आकर ग्रन्थ श्वेताम्बर-साहित्य में हैं। उक्त दो दृष्टान्तों में से पहला दृष्टान्त, जीवकाण्ड गा. ५०६-५०७ में है। लेश्या की कुछ विशेष बातें जानने के लिये जीवकाण्ड का लेश्यामार्गणाधिकार (गा. ४८८५५५) देखने योग्य है।
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