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प्रकाशकीय
व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। लेकिन उस फल की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती है। कर्म जड़ है और जब उसका चेतनजीव से सम्पर्क होता है तो वह अपने अच्छेबुरे विपाकों को नियत समय पर जीव पर प्रकट करता है । कर्मवाद यह नहीं कहता कि चेतन के सम्बन्ध के बिना ही जड़कर्म भोग देने में समर्थ है। वह इतना कहता है कि फल देने के लिए किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सभी जीव चेतन हैं, वे जैसा कर्म करते हैं उसके अनुसार उनकी बुद्धि हो जाती है, जिससे बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे कुकृत्य कर बैठते हैं जिससे कर्मानुसार उनको फल मिलता है।
प्रथम संस्करण के रूप में यह ग्रन्थ श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, रोशन मोहल्ला, आगरा द्वारा ई. सन् १९३९ में प्रकाशित हुआ था। ग्रन्थ की महत्ता एवं उपादेयता को देखते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ इसके सभी खण्डों का संशोधन कर पुनः प्रकाशन कर रहा है। यह श्रमसाध्य एवं व्ययसाध्य कार्य कदापि सम्भव नहीं होता यदि हमें श्री चैतन्य कोचर, नागपुर का सहयोग नहीं मिला होता। श्री चैतन्य कोचर साहब की जैन साहित्य के विकास, संवर्द्धन एवं संरक्षण में विशेष रुचि है। आप एक उत्कृष्ट चिन्तक, सुश्रावक एवं व्यवसायी हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए उदार आर्थिक सहयोग हेतु हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
इस ग्रन्थ के भाषा संशोधन एवं प्रूफ रीडिंग का गुरुतर कार्य डॉ. विजय कुमार, प्रकाशन अधिकारी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने सम्पादित किया है, एतदर्थ वे बधाई के पात्र हैं। इस कार्य में उनके सहयोगी रहे डॉ. सुधा जैन एवं श्री ओमप्रकाश सिंह भी निश्चय ही धन्यवाद के पात्र हैं।
प्रकाशन सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिए हम संस्थान के सह-निदेशक डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते हैं।
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