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परिशिष्ट
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सम्यक्त्व सहेतुक है या निर्हेतुक? क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार, औपशमिक और क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व का आपस में अन्तर, क्षायिकसम्यक्त्व की उन दोनों से विशेषता, कुछ शङ्का-समाधान, विपाकोदय और प्रदेशोदय का स्वरूप, क्षयोपशम तथा उपशम-शब्द की व्याख्या एवं अन्य प्रासङ्गिक विचार पृ. १३६ पर है।
अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले चक्षुर्दर्शन नहीं माने जाने और चक्षुर्दर्शन माने जाने पर प्रमाणपूर्वक विचार पृ. १४१ पर है।
वक्रगति के सम्बन्ध तीन बातों पर सविस्तार विचार-१. वक्रगति के विग्रहों की संख्या, २. वक्रगति का कालमान और ३. वक्रगति में अनाहारकत्व का काल-मान पृ. १४३ विवेचित है।
अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के विषय में पक्ष-भेद तथा प्रत्येक पक्ष का तात्पर्य अर्थात् विभङ्गज्ञान से अवधिदर्शन का भेदाभेद पृ. १४६ पर उल्लेखित है।
श्वेताम्बर दिगम्बर सम्प्रदाय में कवलाहार-विषयक मत-भेद का समन्वय पृ. १४८ पर विवेचित है।
केवलज्ञान प्राप्त कर सकने वाली स्त्री जाति के लिये श्रुतज्ञान विशेष का अर्थात् दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध करना, यह एक प्रकार से विरोध है। इस सम्बन्ध में विचार तथा नय-दृष्टि से विरोध का परिहार पृ. १४९ व्याख्यायित है।
चक्षुर्दर्शन के योगों में से औदारिकमिश्र योग का वर्जन किया है, सो किस तरह सम्भव है? इस विषय पर विचार पृ. १५४ किया गया है।
केवलिसमुद्धात सम्बन्धी अनेक विषयों का वर्णन, उपनिषदों में तथा गीता में जो आत्मा की व्यापकता का वर्णन है, उसका जैन-दृष्टि से मिलान और केवलिसमुद्धात जैसी क्रिया का वर्णन अन्य किस दर्शन में है? इसकी सूचना पृ. १५५ पर दी गई है।
जैन दर्शन में तथा जैनेतर दर्शन में काल का स्वरूप किस-किस प्रकार का माना है? तथा उसका वास्तविक स्वरूप कैसा मानना चाहिये? इसका प्रमाणपूर्वक विचार पृ. १५७ पर उल्लेखित हैं।
छः लेश्या का सम्बन्ध चार गुणस्थान तक मानना चाहिये या छ: गुणस्थान तक? इस सम्बन्ध में जो पक्ष हैं, उनका आशय तथा शुभ भावलेश्या के समय अशुभ द्रव्यलेश्या और अशुभ द्रव्यलेश्या के समय शुभ भावलेश्या, इस प्रकार
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