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चौथा कर्मग्रन्थ लेश्याओं की विषमता किन जीवों में होती है? इत्यादि विचार पृ. १७२ उद्धृत है, नोट।
कर्मबन्ध के हेतुओं की भिन्न-भिन्न संख्या तथा उसके सम्बन्ध में कुछ विशेष ऊहापोह पृ. १७४ पर दिया गया है, नोट।
आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक और आभिनिवेशिक-मिथ्यात्व का शास्त्रीय विवेचन पृ. १७६ किया गया है, नोट।
तीर्थंकरनाम कर्म और आहारक-द्विक, इन तीन प्रकृतियों के बन्ध को कहीं कषाय-हेतुक कहा है और कहीं तीर्थंकरनाम कर्म के बन्ध को सम्यक्त्व हेतुक तथा आहारक द्विक के बन्ध को संयम-हेतुक, सो किस अपेक्षा से? इसका स्पष्टीकरण। पृ. १८१ पर देखें, नोट।
___ छ: भाव और उनके भेदों का वर्णन अन्यत्र कहाँ-कहाँ मिलता है? इसकी सूचना पृ. १९६ पर है, नोट।
मति आदिमम अज्ञानों को कहीं क्षायोपशमिक और कहीं औदयिक कहा है, सो किस अपेक्षा से? इसका स्पष्टीकरण पृ. १९९ पर है, नोट।
संख्या का विचार अन्य कहाँ-कहाँ और किस-किस प्रकार है? इसका निर्देश पृ. २०८ पर दिया गया है, नोट।
युगपद् तथा भिन्न-भिन्न समय में एक या अनेक जीवाश्रित पाये जाने वाले भाव और अनेक जीवों की अपेक्षा से गुणस्थानों में भावों के उत्तर-भेद पृ. २३१ पर देखें।
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