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जीवस्थान-अधिकार
अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त शेष सात जीवस्थानों में परिणाम ऐसे संक्लिष्ट होते हैं कि जिससे उनमें मिथ्यात्व के अतिरिक्त अन्य किसी गुणस्थान का सम्भव नहीं है।।३॥
(२) जीवस्थानों में योग'
(दो गाथाओं से) अपजत्तछक्कि कम्मुर, लमीसजोगा अपज्जसंनीसु। ते सविउव्वमीस एसु तणु पज्जेसु उरलमन्ने।।४।।
अपर्याप्तषट्के कार्मणौदारिकमिश्रयोगावपर्याप्तसंज्ञिषु। तो सर्वक्रियमिश्रावेषु तनुपर्याप्तेष्वौदारिकमन्ये।।४।।
अर्थ-अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त विकलत्रिक और औदारिकमिश्र, ये दो ही योग होते हैं। अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग पाये जाते हैं। अन्य आचार्य ऐसा मानते हैं कि 'उक्त सातों प्रकार के अपर्याप्त जीव, जब शरीरपर्याप्ति पूरी कर लेते हैं, तब उन्हें औदारिक काययोग ही होता है, औदारिकमिश्र नहीं|४||
भावार्थ-सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त छ: अपर्याप्त जीवस्थानों में कार्मण और औदारिकमिश्र दो ही योग माने गये हैं; इसका कारण यह है कि सब प्रकार के जीवों को अन्तराल गति में तथा जन्म-ग्रहण करने के प्रथम समय में कार्मणयोग ही होता है; क्योंकि उस समय औदारिक आदि स्थूल शरीर का अभाव होने के कारण योगप्रवृत्ति केवल कार्मणशरीर से होती है। परन्तु उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण बन जाने तक मिश्रयोग होता है; क्योंकि उस उवस्था में कार्मण और औदारिक आदि स्थूल शरीर की मदद से योगप्रवृत्ति होती है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि छहों जीवस्थान औदारिक शरीर वाले ही हैं, इसलिये उनको अपर्याप्त अवस्था में कार्मण काययोग के बाद
जिनेश्वर को भी द्रव्यमन के लिये अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्धों
का आगमन हुआ करता है, इसलिये उन्हें मनोयोग कहा है।।२२८।। १. यह विषय, पञ्चसं द्वा. १, गा. ६-७ में है।
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