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________________ परिशिष्ट १५५ 'पज्जत्तस्सय उदये, णियणियपज्जतिणिट्ठिदो होदि। जाव सरीरमपुण्णं, णिव्वत्तिअपुण्णगो ताव।।१२०।।' -जीवकाण्ड। सारांश यह कि दिगम्बर-साहित्य में पर्याप्त नामकर्म का उदयवाला ही शरीर-पर्याप्ति पूर्ण न होने तक 'निवृत्ति-अपर्याप्त' शब्द से अभिमत है। परन्तु श्वेताम्बरीय साहित्य में 'करण' शब्द का ‘शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियाँ', इतना अर्थ किया हुआ मिलता है। यथा 'करणानि शरीराक्षादीनि'। -लोकप्र., स. ३, श्लो. १०।। अतएव श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय के अनुसार जिसने शरीर-पर्याप्ति पूर्ण की है, पर इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी ‘करण-अपर्याप्त' कहा जा सकता है। अर्थात् शरीररूप करण पूर्ण करने से 'करण-पर्याप्त' और इन्द्रियरूप करण पूर्ण न करने से 'करण-अपर्याप्त' कहा जा सकता है। इस प्रकार श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय की दृष्टि से शरीरपर्याप्ति से लेकर मन:पर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति के पूर्ण होने पर ‘करण पर्याप्त' और 'उत्तरोत्तर पर्याप्ति' के पूर्ण न होने से 'करण अपर्याप्त' कह सकते हैं। परन्तु जब जीव, स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेवें, तब उसे 'करण-अपर्याप्त' नहीं कह सकते। पर्याप्ति का स्वरूप-पर्याप्ति, वह शक्ति है, जिसके द्वारा जीव, आहारश्वासोच्छ्वास आदि के योग्य पद्गलों को ग्रहण करता है और गृहीत पदगलों को आहार-आदि रूप में परिणत करता है। ऐसी शक्ति जीव में पुद्गलों के उपचय से बनती है। अर्थात् जिस प्रकार पेट के भीतर के भाग में वर्तमान पुद्गलों में एक तरह की शक्ति होती है, जिससे कि खाया हुआ आहार भिन्न-भिन्न रूप में बदल जाता है; इसी प्रकार जन्मस्थान प्राप्त जीव के द्वारा गृहीत पुद्गलों से ऐसी शक्ति बन जाती है, जो कि आहार आदि पुद्गलों को खल-रस आदि रूप में बदल देती है। वही शक्ति पर्याप्ति है। पर्याप्तिजनक पुद्गलों में से कुछ तो ऐसे होते हैं, जो कि जन्मस्थान में आये हुये जीव के द्वारा प्रथम समय में ही ग्रहण किये हुये होते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो पीछे से प्रत्येक समय में ग्रहण किये जाकर, पूर्व-गृहीत पुद्गलों के संसर्ग से तद्रूप बने हुये होते हैं। कार्य-भेद से पर्याप्ति के छ: भेद हैं-१. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, ५. भाषापर्याप्ति और ६. मनः पर्याप्ति। इनकी व्याख्या पहले कर्मग्रन्थ की ४९वीं गाथा के भावार्थ में पृ. ९७वें से देख लेनी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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