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________________ १५४ चौथा कर्मग्रन्थ २. परन्तु करण-अपर्याप्त के विषय में यह बात नहीं, वे पर्याप्त नामकर्म के भी उदयवाले होते हैं। अर्थात् चाहे पर्याप्त नामकर्म का उदय हो या अपर्याप्त नामकर्म का, पर जब तक करणों की (शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की) समाप्ति न हो, तब तक जीव 'करञ्च-अपर्याप्त' कहे जाते हैं। (ख) १. जिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो और इससे जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते हैं, पहले नहीं, वे 'लब्धि-पर्याप्त' हैं। २. करण-पर्याप्तों के लिये यह नियम नहीं है कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं। जो लब्धि-अपर्याप्त हैं, वे भी करण-पर्याप्त होते ही हैं; क्योंकि आहारपर्याप्ति बन चुकने के बाद कम से कम शरीरपर्याप्ति बन जाती है, तभी से जीव 'करण-पर्याप्त' माने जाते हैं। यह तो नियम ही है कि लब्धि अपर्याप्त भी कम से कम अहार, शरीर और इन्द्रिय, इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना मरते नहीं। इस नियम के सम्बन्ध में श्रीमलयगिरिजी ने नन्दीसूत्र की टीका, पृ. १०५ में यह लिखा है 'यस्मादागामिभवायुर्बध्वा स्रियन्ते सर्व एव देहिनः तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यत इति' अर्थात् सभी प्राणी अगले भव की आयु को बाँधकर ही मरते हैं, बिना बाँधे नहीं मरते। आयु तभी बाँधी जा सकती है, जब कि आहार, शरीर और इन्द्रिय, ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण हो चुकी हों। इसी बात का खुलासा श्रीविनयविजय जी ने लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लो. ३१ में इस प्रकार किया है-जो जीव लब्धि-अपर्याप्त है, वह भी पहली तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही अग्रिम भव की आयु बाँधता है। अन्तर्मुहूर्त तक आयु-बन्ध करके फिर उसका जघन्य अबाधाकाल, जो अन्तर्मुहूर्त का माना गया है, उसे वह बिताता है; इसके बाद मरके वह गत्यन्तर में जा सकता है। जो अग्रिम आयु को नहीं बाँधता और उसके अबाधाकाल को पूरा नहीं करता, वह मर ही नहीं सकता। दिगम्बर-साहित्य में करण-अपर्याप्त के बदले 'निर्वृत्ति अपर्याप्तक' शब्द मिलता है। अर्थ में भी थोड़ा-सा फर्क है। 'निवृत्ति' शब्द का अर्थ शरीर ही किया हुआ है। अतएव शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होने तक ही दिगम्बरीय साहित्य जीव को निर्वृत्ति अपर्याप्त कहता है। शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वह, निवृत्तिअपर्याप्त का व्यवहार करने की सम्मति नहीं देता। यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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